



भारत छोड़ो आंदोलन में आदिवासियों की सहभागिता
अंजु टोप्पो

आदिवासी हमेशा से ही आज़ाद प्रकृति के रहे हैं। इतिहास गवाह है की इन्होंने गुलामी और किसी भी प्रकर के बाहरी हस्तछेप का विद्रोहों के द्वारा विरोध किया है- जैसे कोल विद्रोह (1831-32), संताल विद्रोह (1855-56), सरदारी लड़ाई (1869-1895), उल्गुलान (1899-1900), ताना भगत आंदोलन (1914-15)आदि। 19वी सदी के शुरुआत से ही औपनिवेशिक प्रणाली के वे प्रबल विरोधी थे। स्वतंत्र वर्ष 1947 से महज 5 वर्ष पहले अगस्त 1942 में भी अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति प्राप्ति की गंभीर कोशिश की गई थी। इस आंदोलन में छोटानागपुर और संताल परगना के आदिवासियों ने ब्रिटिश प्रशासन को बहार करने में अदम्य साहस का परिचय दिया था।
देश भर में भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज़ 9 अगस्त 1942 को हुआ। आंदोलन के एक दिन पूर्व ही काई सारे नेतृत्वकर्ताओं को गिरफतार कर लिया गया था।लेकिन लोगों का मनोबल नहीं टूटा, वरन उन्होनें आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिसा लिया। आदिवासी भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने हड़ताल और विरोध प्रदर्शन किया, और साथ ही संचार के साधन को भी ध्वस्त किया।
1941 की जनगन्ना के अनुसार भारत की कुल आदिवासी जनसंख्या 2.48 करोड़ थी। अविभाजित बिहार में आदिवासियों की सांख्य 51.65 लाख थी। अविभाजित बिहार में छोटानागपुर और संताल परगना के क्षेत्र 'भारत छोड़ो आंदोलन' के प्रमुख केंद्र बन गए थे। छोटानागपुर में रांची, धनबाद, गिरिडीह, झरिया, पलामू, लातेहार, गुमला, डुमरी, खूंटी, मानभूम, सिंहभूम, इटकी, लोहरदगा, बरवाडीह, चंदवा, डाल्टनगंज, चक्रधरपुर, बिशुनपुर आदि क्षेत्र महत्वपूर्ण केंद्र थे। संताल परगना में भी आंदोलन तेजी से बढ़ा। राजमहल से शुरू होकर यह दामिन-ए-कोह के सभी इलाकों में फैल गया। बोरियो, बरहेट, बरहरवा, तीनपहाड़, दुमका, जामताड़ा, पाकुड़, साहिबगंज, मधुपुर, देवघर कुछ महत्वपूर्ण केंद्र थे।
आदिवासियों का कड़ा विरोध छोटानागपुर में देखा जा सकता था। पूर्ण स्वतंत्रता के लिए 10 अगस्त को टाटानगर में पूर्ण स्ट्राइक की गई थी। 11 अगस्त को हजारीबाग में आंदोलन शुरू किया गया। 14 अगस्त को रांची के छात्रों ने विरोध जुलूस निकाला। लोहरदगा में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। गोड्डा में भी राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया। 18 अगस्त को बिशुनपुर थाना फुंका गया। 22 अगस्त को इटकी और तंगरबंसली में रेल फटरी को ध्वस्त किया गया साथ ही डालटनगंज के मुख्य डाकघर में भी तोड़ फोड की गई। 12 सितंबर को ताना भगतों ने चांदवाह ठाणे पर झंडा फहराया।
आदिवासियों में कभी भी नेतृत्वकर्ताओं की कमी नहीं रही है। चेतन मांझी, बरका मांझी, चरका भगत, करीमन खेरवार, जानकी खरवार, बिरसा भगत ने छोटानागपुर में आंदोलन का नेतृत्व किया। वही संताल परगना में दुलारचंद टुडु, किस्तो मुर्मू, विक्रम हंसदाह, भीकू मुर्मू, रघु मुर्मू, जयराम मुर्मू, दूरी हेमब्रोम, बरसा मरांडी, रतू मरांडी प्रमुख नाम हैं। उनके नेतृत्व में आदिवासी बड़ी संख्या में शामिल हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 208 थानों में से 72 पूरी तरह से तबाह हो गए थे।
पुलिस ने बर्बरता से विद्रोह को दबाने की कोशिश की। इतिहासकार डॉ. सुमित सरकार के अनुसार गिरफ्तार किए गए 1214 लोगों में से 42 प्रतिशत आदिवासी थे। गोड्डा जेल, पटना, भागलपुर कैंप जेल, दुमका, हजारीबाग जेल में कई और आंदोलनकारी को डाल दिया गया। उनमें से अधिकांश की मृत्यु भी विरोध आंदोलन के दौरान हुई थी। ये सभी स्वतंत्रता सेनानी थे। अन्य सभी आदिवासी आंदोलनों की तरह यह भी आदिवासी एकता, साहस, अपनी भूमि को बाहरी लोगों से बचाने के लिए बहादुरी का आदर्श उदाहरण है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल आदिवासी नायकों की भूमिकाओं को लिखित रूप में नहीं बताया गया है।