


बालक बिरसा की कहानी

डॉ. संजय बाड़ा
छोटानागपुर की धरती का महान नायक बिरसा मुंडा का अभ्युदय अबुआ दिशुम की एक महान घटना है। बात 1872 ई. या 1875 ई. की रही होगी जब सुगना मुंडा एवं करमी मुंडा का परिवार अपने घर में आनेवाले नन्हे बच्चे का इंतज़ार कर रहे थे। बृहस्पतिवार के दिन, नन्हे बालक बिरसा का जन्म हुआ। बड़े भाई -बहन कोमता, दसकिर एवं चंपा अपने छोटे भाई को पाकर बड़े खुश थे। दादू लकड़ी मुंडा के घर एक नया मेहमान आया था। बृहस्पतिवार के दिन जन्म लेने के कारण शायद नाम भी बिरसा पड़ा होगा। माँ करमी का दुलारा बेटा बिरसा का मुंडा संस्कार के अनुसार चटी-जोआर कराया गया। मुंडा परिवार में शिशु के जन्म पर उसकी शुद्धता हेतु किया गया यह संस्कार प्रायः जन्म के आठवें दिन किया जाता है। इस क्रिया के बाद ही नन्हा बालक परिवार का सदस्य माना जाता है।
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Source: https://en.wikipedia.org/wiki/Birsa_Munda#/media/File:Birsa_Munda,_photograph_in_Roy_(1912-72).JPG
पिता सुगना का परिवार गरीब था। माता पिता किसी तरह अपने परिवार के कुल 5 बच्चों का जिसमें बिरसा से छोटा कानू भी शामिल था कर रहे थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। बाप दादाओं की ज़मीन छीन चुकी थी। सरदारी लड़ाई छिड़ी हुई थी जो मुंडा सरदारों द्वारा अपनी भूमि वापस पाने के लिए लड़ी जा रही थी। जो कुछ बचा था उसी में किसी प्रकार गुजर बसर हो रहा था। आरंभ में बिरसा जिसे 'दाऊद बिरसा' भी कहा जाता था का बचपन अपने माता पिता के साथ चलकद में ही बीता। लोकगीतों के वर्णन से पता चलता है कि मुंडा बच्चों की तरह ही बिरसा का बचपन अपने हमउम्र बच्चों के साथ गुजरा। मुंडा देश की नदी और बालू में खेलते जहां बिरसा ने अन्य बच्चों की तरह अपना बचपन बिताया।
चलकद में रहकर परिवार के सभी बच्चों का लालन पालन मुश्किल हो रहा था इसलिये पिता सुगना ने माँ करमी से विचार विमर्श कर एक दिन बालक बिरसा को उसके नाना नानी के घर अयुबहातु गाँव पहुंचा दिया। अब बिरसा के लालन पालन की जिम्मेदारी नाना डीबर मुंडा की थी। नाना डीबर मुंडा की 3 पुत्रियां थी-मां करमी सबसे बड़ी ,फिर मौसी सोहराई और सबसे छोटी मौसी जोनी। दाऊद बिरसा अपनी मौसी जोनी का दुलारा था। जोनी को मौसी कम, अब माँ की तरह ही जिम्मेदारी निभानी थी । पीठ में बेतरा कर मौसी जहाँ भी जाती साथ ले जाती। बिरसा भी अपनी मौसी के स्नेह एवं दुलार में पल बढ़ रहा था। बाद में मौसी की शादी खटंगा गाँव मे हो गयी। भला मौसी अपने मासूम नन्हे बिरसा को अकेले कैसे छोड़ सकती थी वह उसे भी अपने साथ अपने ससुराल खटंगा ले आयी।
बाल्यकाल का समय सीखने का समय होता है बिरसा ने भी इस समय बहुत कुछ सीखा। अपने मौसा मौसी के घर रहते समय बिरसा बांसुरी बजाने एवं वादन यंत्र तुइला बजाने में पारंगत हो गया। अखड़ा एवं इसकी परंपरा को भी नजदीक से देखने का मौका मिला। यहीं उसे भेड़ बकरियों को चराने का काम भी मिला। गाँव के अन्य लड़कों के साथ वह बोहंडा के जंगलों में अपने जानवरों को चराने ले जाया करता था। इसी क्रम में उसने अपने मुंडा देश के जंगल, पहाड़ एवं नदियों में बहती धाराओं को नजदीक से देखा। वहाँ वह अपने भेड़ बकरियों को चराने के साथ अपने दोस्तों के साथ खेलने लग जाता और कभी कभी किसी चट्टान या पेड़ के नीचे बांसुरी बजाने में मग्न हो जाता। अपने बांसुरी के मुग्ध ध्वनि में वह स्वयं खो जाता पर इसी आदत ने बिरसा को मुसीबत में भी डाल दिया। एक दो घटना ऐसी हुई जिससे बिरसा ने अपने मौसा एवं गाँव के लोगों को नाराज कर दिया एक बार उसके जानवरों ने गाँव के अन्य लोगों के फसल को नुकसान पहुँचाया और एक बार बिरसा बांसुरी बजाने में इतने मग्न हो गए कि एक बड़ा जानवर बिरसा के बकरी बच्चा को उठा ले गया। बिरसा के मौसा सख्त मिजाज थे।उन्होंने बिरसा पर हाँथ उठाया। बिरसा इससे सहम गए और उन्होनें वह गाँव छोड़ दिया। वह अपने पिता के पास लौट गया पर पिता एवं परिवार गरीबी से जूझ रहे थे पिता उन्हें बिरसा के मामू के यहाँ अयुबहातु ले गए जहाँ बिरसा को पास के गाँव सलगा के एक स्कूल में भर्ती करा दिया। स्कूल के मास्टर जयपाल नाग थे उन्होंने देखा कि बिरसा कुशाग्र बुद्धि और पढ़ने में तेज है। उन्होंने इससे प्रभावित होकर बिरसा को बड़े लग्न के साथ पढ़ाया लिखाया। इसी गाँव के नज़दीक कुछ दूरी पर डोम्बारी पहाड़ था जो आज बिरसा के उलगुलान का प्रतीक बन चुका है। बिरसा इस पहाड़ को देख कहीं खो जाते शायद यह आनेवाले कल की एक महान पुकार थी। इसी पहाड़ी पर कई आंदोलनकारियों को अपनी जान गवांनी पड़ी थी।
सलगा गांव का स्कूल पास करने के बाद वह बुर्जु स्थित जर्मन ईसाई प्राइमरी स्कूल गया जहाँ से उन्होंने प्राथमिक परीक्षा पास की। आगे की उच्च शिक्षा के लिए बच्चे चाईबासा जाते थे। जहाँ जर्मन ईसाई मिशन द्वारा उच्च प्राथमिक स्कूल चलाया जा रहा था। बिरसा के पिता और गाँव के तीन चार बच्चे एवं उनके अभिभावक पैदल ही चाईबासा में अपने बच्चों के नामांकन के लिए निकल पड़े। ऊँचे पहाड़, जंगली जानवरों का डर एवं पथरीली भूमि को पार करते लहूलुहान पैरों के साथ वे स्कूल पहुंचे। पर यह क्या स्कूल में नामांकन की अवधि समाप्त हो चुकी थी । स्कूल के पादरी डिडलैक ने सुगना मुंडा एवं अन्य अभिभावकों को सलाह दी कि वे बच्चों को लेकर वापस चले जाएं पर पिता सुगना ने उनसे काफी अनुनय विनय किया और सहानुभूति प्राप्त कर बिरसा का नामांकन उस स्कूल में हो गया। इस स्कूल में बिरसा 1886 ई से 1890 ई तक रहे। यह समय बालक बिरसा के व्यक्तित्व का निर्माण काल था। बिरसा के स्कूल के दिनों में ही उसके संबंध में दो भविष्य वाणी भी की गई
थी।
~ पहली भविष्यवाणी आरंभिक स्कूल के मास्टर ने की थी उसने बिरसा के हथेली में एक चिह्न देख उससे कहा था कि यह बालक एक दिन अपना राज्य वापस कराकर रहेगा।
~दूसरी भविष्यवाणी एक बूढ़ी औरत ने की थी और बिरसा के माथे की रेखाओं को देख कहा था कि वह एक दिन बड़े काम कर दिखायेगा।
ये भविष्यवाणियां आनेवाले दिनों में सच साबित होने वाली थी। बिरसा का स्कूली जीवन उसे जीवन की सच्चाई से अवगत करा रहा था। कई घटनाएं बिरसा के मन को विचलित कर रही थी। देश मे अंग्रेजी राज था। ज़मींदार, महाजन एवं साहूकारों का शोषण बढ़ता जा रहा था। सरदारी लड़ाई चल रही थी बिरसा भी उत्सुक था उसे भी आशा थी कि आनेवाले दिनों में उसे अपनी खोई ज़मीन वापस मिल जाएगी। जल, जंगल, पहाड़ जिसे उसने करीब से देखा था और जिसे उसने जिया था। यह तो उनके पूर्वजों की धरोहर थी पर इसपर उनका अधिकार न था। उसने प्रण किया कि वह इसे वापस पा कर रहेगा और अपने लोगों को शोषण से मुक्त कराएगा। अबुआ दिशुम अबुआ राज की परिकल्पना बिरसा ने अपने मन में अपने स्कूली दिनों में ही स्थापित कर ली थी। बालक बिरसा अब व्यस्क हो चुका था। अब उस व्यस्क बिरसा को आगे की लड़ाई लड़नी थी।