



आदिवासी एवं धर्म की राजनीति
जगदीप हेम्ब्रोम

PC: countercurrents.org
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आदिवासी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – आदि + वासी, अर्थात् वे लोग जो आदि काल से रहते आए हैं, उन्हें आदिवासी कहा जाता है। हालांकि अधिकांस आदिवासियों को आधिकारिक भाषा में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है। यह नाम अंग्रेजों द्वारा दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366(25) में अनुसूचित जनजाति की परिभाषा के विषय में अनुच्छेद 342 का जिक्र है। अनुच्छेद 342 का धारा (1) और (2) कहता है कि राष्ट्रपति किसी भी जनजाति या जाति समूह को इस वर्ग में शामिल कर सकते हैं, बर्शते वह जाति विशेष राज्य विधानमंडल तथा संसद द्वारा अनुमोदित हो। इसके अलावे राज्य विधानमंडल या संसद किसी जाति या जाति समूह को इस सूची से निकाल भी सकती है। बहरहाल उपरोक्त परिभाषा आदिवासी को समझने के लिए काफी नहीं है, इसलिए भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा निम्नलिखित अर्हताएँ बताई गई है :- (1) आदिम लक्षण (2) विशिष्ट परंपरा व संस्कृति (3) दुर्गम क्षेत्रों में निवास (4) दूसरों से मिलने में संकोचपन अर्थात् शर्मीलापन (5) पिछड़ापन।[i]
उपरोक्त लक्षणों के आधार पर किसी भी जाति अथवा जाति समूह को राज्य विधानमंडल द्वारा अनुमोदित कर संसद को प्रेषित किया जाता है, जिसपर भारत के रेजिस्ट्रार जेनरल तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की सहमति होती है। संसद से The Constitution (Scheduled Tribe) Order 1950 में संशोधन कर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त होता है। ज्ञात रहे कि राज्य विधानमंडल जब किसी जाति का अनुमोदन संसद भेजती है तो उस पर यह औचित्य साबित करने की भी ज़िम्मेदारी होती है, जिसके तहत उस जाति विशेष के साथ उनके निवास क्षेत्र या सम्बंधित जिलों की सूची भी साथ में भेजना आवश्यक होता है। अर्थात् आदिवासियों के लिए आदिम पहचान के साथ-साथ क्षेत्र भी मायने रखती है।
अब बात आती है कि संविधान में तो अनुसूचित जनजातियों की सूची वर्णित नहीं है तो फिर इनकी सूची कहां है? भारत की उन सभी जनजातियों की सूची जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है उनकी सूची The Constitution (Scheduled Tribes) Order 1950 में वर्णित है।[ii] इस कानून में राज्यवार जनजातियों की सूची दी गई हैं। अनुसूचित जनजाति का दर्जा पूरे देश में एकसमान नहीं है अर्थात् झारखंड में दर्जा प्राप्त अनुसूचित जनजाति गुजरात में अनुसूचित जनजाति का दर्जा तभी प्राप्त करेगा जब वह गुजरात में भी मान्यता प्राप्त हो। इसी कानून में वर्णित सूची के आधार पर आदिवासियों को आरक्षण का लाभ मिलता है। अर्थात् इस सूची में जितने भी जनजातियों का वर्णन है, सबों को आरक्षण दिया जाता है। याद रहे "इस कानून में कहीं भी धर्म की बात नहीं की गई है"। सुप्रीम कोर्ट भी आदिवासियों के आरक्षण सम्बंधी मुक़दमों पर इसी कानून के आधार पर अपना फैसला देती है। अत: धर्मान्तरित आदिवासियों को आरक्षण का लाभ न देने की बात करना बेमानी है। जम्मू-कश्मीर में बकरवाल, गुर्जर आदि ऐसी जनजातियां हैं जो इस्लाम धर्म को मानते हैं और उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। इसके अलावा उत्तर-पूर्व में निवास करने वाली अधिकतर जनजातियों द्वारा ईसाई धर्म अपनाया गया है।
कुछ लोगों का तर्क है कि जिस प्रकार धर्मान्तरित अनुसूचित जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता उसी प्रकार धर्मान्तरित आदिवासियों को भी लाभ न मिले। यहँ मैं यह बता देना चाहूंगा कि धर्मान्तरित अनुसूचित जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिलता है सिवाय इस्लाम, जैन व ईसाई धर्म के अपनाने वालों को। अर्थात् धर्मान्तरण पश्चात सिख व बौद्ध धर्म अपनाने वालों को आरक्षण का लाभ मिलता है। (हालांकि यह प्रावधान 1990 में जोड़ा गया) जैन धर्म को चूंकि अल्पसंख्यकों में नहीं गिना जाता था इसलिए जैन अनुयायियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। The constitution (Scheduled Castes) Order 1950 की धारा (3) में कहा गया कि हिन्दू, सिक्ख व बौद्ध धर्म मानने वालों को ही अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त होगा।(ऐसा इसलिए क्योंकि इन पर हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 लागू होता है)।
आदिवासियों पर हिन्दू विवाह अधिनियम लागू नहीं होता इसलिए इन पर किसी विशेष धर्म को मानने की बाध्यता नहीं है, वे किसी भी धर्म को अपना सकते हैं। धर्म के आधार पर उन्हें अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाले आरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा। यह बात गृह मंत्रालय द्वारा 1975 में सभी राज्यों को भेजी गई पत्र में भी कहा गया है। जो राज्य सरकार चन्द्रमोहन बनाम केरल सरकार वाद तथा अंजन कुमार बनाम बिहार सरकार वाद का हवाला देते हुए धर्मान्तरित आदिवासियों के आरक्षण को खत्म करने का दावा कर रही है, वह वास्तव में हमें भूमि अधिग्रहण के मामले तथा अन्य सभी अहम मुद्दों से ध्यान हटाने व आपसी एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है, क्योंकि इन दोनों वादों में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके आधार पर आरक्षण हटाया जा सके। शायद ही सरकार ऐसा कानून बनाए जिससे उसकी किरकिरी हो क्योंकि ऐसा कानून कोर्ट में निश्चित तौर पर निरस्त हो जाएगी।
अत: ऐसे ध्यान भटकाने वाले मुद्दों पर अपनी ऊर्जा और समय व्यतीत न कर आपसी सद्भाव बरकरार रखें एवं एक-दूसरे का हम सम्मान करें।
[i] https://pib.gov.in/PressReleaseIframePage.aspx?PRID=1514486
[ii] https://legislative.gov.in/sites/default/files/19_The%20Constitution%20%28ST%29%20Order%201950.pdf