top of page
Screen Shot 2021-03-25 at 16.36.52.png
PhotoFunia-1616158473.jpg

​डॉ. संजय बाड़ा 

आदिवासी हो क्या?

हाँ! मैं आदिवासी हूँ, आदि एवं वासी इस दो शब्दों के मेल से मेरा अस्तित्व जुड़ा है । जिसका अर्थ है अनादि-काल से किसी भौगोलिक स्थान में वास करने वाला व्यक्ति या समूदाय। इसका अर्थ है मैं इस धरती का प्रथम निवासी हूँ जो सदियों से यहाँ निवास करता आ रहा हूँ।

लोग मुझे अपने संबोधन  के लिए बहुत सारे शब्द प्रयोग में लाते हैं, जैसे- मूलनिवासी, देशज, बनवासी, गिरिवासी, गिरिजन, जंगली, आदिम, आदिवासी इत्यादि, पर याद रहे मुझे आदिवासी नाम सबसे प्रिय है। दुनिया मेरी पहचान भौगोलिक एकाकीपन, विशिष्ट संस्कृति, पिछड़ापन, संकुचित स्वभाव एवं आदिम जाति के लक्षण के रूप में देखती है, पर हम आदिवासियों की पहचान तो  हमारी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार से  जुड़ी है। हमारा अनुभव जनित ज्ञान किसी शोध और विज्ञान से कम नहीं है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी विशेषता उसकी प्रकृति से समीपता है। प्रकृति ने हमें आनेवाली विपदाओं से पूर्व सचेत रहने का ज्ञान दिया है। हमें पहले ही पता चल जाता था कि प्रकृति में क्या घटित होनेवाला है जैसे भूकंप, सुनामी, बारिश आदि आज भी ऐसे लोग हैं जो अनुमान के आधार पर बहुत कुछ जान सकते हैं। यह आदिवासियों के श्रेष्ठ बौद्धिक स्तर एवं उच्चतम ज्ञान कौशल की व्याख्या करता है।

IMG_20190408_120553.jpg

आज इस आधुनिक युग में हम आदिवासी का कैसा चित्र प्रतिबिंबित किया जाता है। फिल्म एवं टेलीविजन में गंवार, अनपढ़, अर्धनग्न मनुष्य एवं जंगलों में हू लाला हू लाला करने वाले असभ्य कबीलाई के रूप में हमें मनोरंजन के लिए परोसा जाता है, क्योंकि टेलीविजन, मीडिया चैनलों, साहित्यों और फिल्मों ने हमारी छवि ऐसे ही गढ़ रखी है कि हम सामाजिक और सभ्य नहीं है और इस कारण जान-बूझकर हमें दोयम दर्जे का साबित करने के लिए ऐसा दर्शाया जाता है। क्या हम आदिवासियों की पहचान यही है । जी नहीं ! हम आदिवासी ही है, जिसने ने दुनिया को लोकतंत्र सिखाया है । हमारी विशिष्ट सभ्यता संस्कृति रही है । उपनिवेशवाद के विरुद्ध और अपनी अस्मिता के रक्षा के लिए आदिवासी समुदायों ने अपनी क्षमता के बल पर कई विद्रोह किये थे। कहा जाता है कि इन आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ना है !

 

क्या वाकई में हम आदिवासी भटके हुए लोग है जिन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है? इसका उत्तर है नहीं! जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था 'संविधान तुम्हारा है सीमाएं तुम्हारी है संप्रभुता तुम्हारी है झंडा तुम्हारा है हमारा क्या है? क्या है तुम्हारे प्रस्तावित संविधान में जो आदिवासियों एवं मुख्यधारा दोनों के लिए एकसमान है'। यही एक समुदाय है जिसने कभी भी पूर्ण आज़ादी और अपनी अस्मिता के सवाल पर न तो कोई मध्यमार्ग अपनाया, न ही कोई समझौता किया; आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं और आर्यों के भारत आने से पहले से ही यहाँ निवास करते रहे हैं। फिर क्या ऐसी वजह है जिसके कारण आदिवासी समुदाय के मुख्यधारा से जुड़ने की बात कही जाती है ?

 

असल में मुख्य धारा है जातिवादी-पूँजी संग्रह केन्द्रित और संसाधनों के अधिकतम शोषण की परिभाषा से पैदा होने वाली जीवन शैली और नीतियां। गैर आदिवासियों ने हमेशा आदिवासियों को उनकी मूल पहचान के साथ अपनाने के बजाये, उसके सामने हमेशा अपनी पहचान को त्यागने की शर्त रखी है। इसी कारण आदिवासी समुदाय में एक धारणा विकसित हुई है जिसके तहत आदिवासी समुदाय किसी भी परिस्थितियों में अपने पहचान एवं अस्मिता के सवाल से समझौता करने के लिए तैयार नहीं है ।

 

हमने जंगल बचाया है, हमने जल बचाया है, हमने ज़मीन बचाया है, हमने पर्यावरण संरक्षित किया है, हमने प्रकृति में अवस्थित पेड़ पौधों वनस्पतियों, जीव जंतु एवं मनुष्य के बीच तादात्म्य स्थापित किया है। हमने कभी जल जंगल ज़मीन को व्यापण का साधन नहीं समझा है वरन उसका संतुलित उपयोग करना एवं प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर पर्यावरण के संरक्षण का स्वसंकल्प किया है। औपनिवेशिक काल में जंगलों को आरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया और उन जंगलों में आदिवासियों की आवाजाही को सीमित कर दिया गया । जिससे आदिवासियों का भोजन, शिकार, परम्पराएं सब कुछ छीन लिए गए, तो आदिवासियों को मजबूरी में जंगलों से पलायन का विकल्प भी अपनाना पड़ा। इसीलिए तो 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही आदिवासियों ने ब्रिटिश दखल एवं अन्य शोषणकारियों का विरोध करना शुरू कर दिया था। जबकि अन्य समुदाय लगभग 100 सालों तक सक्रिय नहीं हुए और ब्रिटिश व्यवस्था से सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करते रहे।

 

अगर आप आदिवासियों की स्थिति बेहतर बनाना चाहते है तो उन्हें अपना समझकर अपनाना, उनकी बीच रहना और उनके साथ भ्रातत्व की भावना विकसित करना; अर्थात उनसे प्रेम करना जानना पड़ेगा। दुनिया हमें अनुपलक्षित मानती हो भले वह आदिवासी के रूप में हमे चिह्नित न करती हो पर हम वह अनुपन्यास नहीं जिसे किसी प्रमाण की आवश्यकता हो । आज आवश्यक है, हम आदिवासियों को  अपने समाज की मान्यताओं, संस्कारों, रीति रिवाजों, ज्ञान और अनुभव को लिपिबद्ध करने का संकल्प लेना होगा। तभी हम अपनी आदिवासी संस्कृति से न्याय कर पाएंगे।

logo.png

Contact Us

+91-9905163839

(For calls & whatsapp)

  • Facebook

Contact us on Facebook

bottom of page