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आदिवासियों के लिए स्वतंत्रता के मायने

डॉ. अनिल कुमार टेटे

आदिवासी, जो आदिकाल से निवास कर रहे हैं। इनका इतिहास सबसे प्राचीन है। प्रारंभ से ये कृषक हैं। इन्होंने जंगलों को साफ कर कृषि योग्य भूमि बनाया और सामुहिक रूप से गांवों में निवास करने लगे। जीवन की अन्य आवश्यकता की पूर्ति के लिए गैर आदिवासी भी इनके साथ गांवों में बसते चले गए। समय का चक्र घुमा और मानव जाति विकास की ओर अग्रसर हुए। लेकिन आदिवासियों में अन्य जातियों की अपेक्षा विकास का क्रम धीमा रहा। विकास के पायदान पर ये पीछे रहे। इनके पास इनकी अपनी जल जंगल और जमीन थी पर आदिवासियों की जमीन पर अन्य लोगों की गिध्द दृष्टि पड़ी और धीरे धीरे इनसे उनकी जमीन छीन ली गयी, कभी विकास योजना के नाम पर, कल कारखानों के नाम पर एवं कभी खनिज संसाधनों के नाम पर। इनके पैतृक निवास स्थलों को भी उजाड़ा गया। जो इनके सामाजिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यों के केंद्र थे। कईयों को मुआवजा मिला तो कई आज भी इसकी उम्मीद में हैं। पर इस मुआवजा का मूल्य उनके भूमि में उनके स्वतंत्र अधिकार के सामने कुछ भी नहीं थे। आदिवासी स्वभाव से शर्मीले तथा भोले होते हैं। इन्हें पैसों का प्रलोभन देकर इनसे इनकी जमीन छीन लेना आम बात हो गयी है। अब ये अपनी ही जमीन पर मजदूर बन गए हैं। आज आदिवासियों को रोजाना होने वाले सार्वजनिक अपमान को सहन करना पड़ता है। इन्हें हीनता की दृष्टि से देखा जाता है। इनके लिये जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर इन्हें अपमानित किया जाता है। इनसे जोर जबरजस्ती की जाती है। पूर्व के उदाहरण बताते है कि इनके गाँव घरों से जबरन मुर्गे और खस्सी उठा लिए जाते थे।
सुदूरवर्ती गाँवो में बसने वाले आदिवासी समाज के बीच आज भी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। आज भी आदिवासी नदियों और झरनों से पीनी पीने को मजबूर हैं। इनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच नहीं है। सरकार की सुविधाएं इन तक नही पहुँच पा रही है। क्या आदिवासियों के लिए स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के उपयोग के यही मायने है जहाँ उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। आज इनकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इस वर्ष हम देश की आजादी का 75वाँ वर्षगाँठ मना रहे हैं। ऐसे में यह मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है कि ऐसी स्वतंत्रता में आदिवासियों के हित और अहित कितने जुड़े हुए हैं। संविधान की पांचवी अनुसूची में दिए गए उपबंध का अनुपालन कितने राज्यों द्वारा किया जा रहा है। साथ ही यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि राज्य सरकारें इसे लागू करने के प्रति कितनी गंभीर हैं? आज आदिवासियों की जमीन शेड्यूल एरिया में धड़ल्ले से बिकती जा रही है। नीतिगत प्रावधान होने के बावजूद इसपर पूर्णतः रोक नहीं लगायी जा सकी है। सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित करने के लिए न जाने कितने ही आदिवासी परिवारों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी। ये वही पटेल हैं जिन्हे स्वतंत्र भारत के एकीकरण के लिए जाना जाता है। पर उनकी ही मूर्ति स्थापित करने के लिए कितने लोगों को अपना घर बार संसार छोड़ना पड़ा है। विकास के फायदे सिर्फ शहरों तक ही सीमित हैं, गांव आज भी इससे वंचित है। आदिवासियों के लिए स्वतंत्रता के मायने जल जंगल और जमीन से जुड़ी है। इनका हित इसी में है कि इनसे इनकी जल जंगल और जमीन के अधिकार बरकरार रखे जाय । स्वतंत्रता के मायने आदिवासियों के लिए तभी सार्थक होंगे जब इस देश के प्रथम नागरिक खुशहाल होंगे।
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