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आदिवासियों की सामुदायिक जीवन संस्कृति पर औपनिवेशिक पूँजीवाद का प्रकोप

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रवि रोशन मिंज 

झारखण्ड में आगमन के साथ आदिवासियों ने यहाँ स्वयं की एक जीवन संस्कृति अथवा पद्धति विकसित की। उन्होंने अपने जीविका के संसाधनों के अधिकार संबंधी एक विशिष्ट अवधारणा विकसित की जिसे हम सामुदायिक अधिकार की जीवन संस्कृति कह सकते हैं। सामुदायिक अधिकार संबंधी जीवन संस्कृति के अंतर्गत चल एवं अचल संपत्ति आते थे जिनसे किसी समुदाय अथवा परिवार की सामूहिक रूप से जीवन निर्वाह की जा सकती थी। मुख्य रूप जब हम आदिवासियों की भूमि की बात करें तब हम पाएंगे कि उनकी भू-सम्पति पर अधिकार की अवधारणा उनकी सामुदायिक जीवन पद्धति की केंद्र बिन्दु है। दूसरे शब्दों में, हम आदिवासियों के सामुदायिक जीवन संस्कृति की बात उनके भूमि संबंधी अधिकार की अवधारणा का अध्ययन किये बिना पूरा नहीं कर सकते हैं।

आदिवासियों की भूमि संबंधी अधिकार की सामुदायिक जीवन पद्धति की अवधारणा बहुत पुरानी है। आधुनिक काल में इसकी चर्चा हम ब्रिटिश शासन के इतिहास के अध्ययन किये बिना पूरा नही कर सकते हैं। डॉ रामदयाल मुंडा जी ने अपनी पुस्तिका 'आदिवासी अस्तित्व और झारखंडी अस्मिता के सवाल' में आदिवासियों की भूमि संबंधी अधिकार की अवधारणा को उजागर किया है। उन्होंने बताया है कि आदिवासियों की भूमि संबंधी अधिकार की अवधारणा व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा पर नही, जैसा की वर्तमान समय में है, बल्कि सामुदायिक संपत्ति की अवधारणा पर आधारित है। जब आदिवासी यहाँ आए तब उन्होंने यहाँ अपने लिए रहने, खेती करने, धार्मिक कार्य करने एवं अन्य जरूरतों के लिए जिस किसी भी जमीन को जंगल साफ करके बनाया उसमे किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार नहीं था, बल्कि उसमे उस खूंट अथवा परिवार का सामूहिक अधिकार होता था। दूसरे शब्दों में, आदिवासी भूमि संबंधी अधिकार सामूहिक अधिकार की अवधारणा पर आधारित थी न कि व्यक्तिगत अधिकार पर। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यदि आज आदिवासी अपनी व्यक्तिगत सम्पति का भोग कर रहा है तो वह कहीं न कहीं पूँजीवादी लक्षण से ग्रसित हो गया है। पूँजीवाद अर्थात अधिक से अधिक बटोरने वाली प्रथा, जिसमें आदिवासी कभी पारंगत हुए ही नहीं हैं। यही वजह है कि आज आदिवासी भूमि से सम्पन्न होते हुए भी गरीब हैं।

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प्रश्न यहाँ यह उठता है कि झारखंड के आदिवासी जो स्वभाव से सामुदायिक जीवन जीते हैं वे कैसे और कब पूँजीवाद से ग्रसित हो गए? इसका जवाब हमें आदिवासियों के भूमि संबंधी अधिकार में परिवर्तनों के इतिहास, जो विशेषकर के ब्रिटिश काल में आया, में मिलेगा। इसको समझने के लिए हमें वैश्विक स्तरीय ऐतिहासिक विचारधाराओं के आपसी टकराव की स्थिति का अध्ययन करना आवश्यक होगा जिसे हम पूँजीवादी एवं समाजवादी संघर्ष के रूप में देखते हैं। झारखण्ड के आदिवासियों के पारम्परिक जीवन संस्कृति अधिकांशतः समाजवाद से ज्यादा मेल खाती है। दूसरे शब्दों में, यहाँ के आदिवासियों की मूल जीवन संस्कृति समाजवादी है जो मूलतः सामुदायिक अधिकार की अवधारणा पर आधारित है जहाँ वे अपने प्रादेशिक संसाधनों का दोहन पूरे पारिवारिक समुदाय विशेष के हितों को ध्यान में रखकर करते हैं।

यदि हम डॉ. नदीम हसनैन की किताब 'जनजातीय भारत' का अध्ययन करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि झारखण्ड में अंग्रेजी शासन स्थापना ने अर्थात पूँजीवादी शासन ने यहाँ की मौलिक सामुदायिक जीवन संस्कृति के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया और पूँजीवाद को थोप दिया जिसमें आदिवासी लड़खड़ा गए हैं। आदिवासियों की जीवन संस्कृति पर्यावरण के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा को विकसित करता  है। झारखण्ड जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के शोध पदाधिकारी सुरेश भगत ने अपने लेख में उल्लेख किया है कि झारखण्ड के जनजातियों का स्वभाव प्रकृति के अनुरुप शान्त और सरल होता है और प्रकृति का संरक्षण करना उनका धर्म होता है। इस अवधारणा को आधुनिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने तोड़ दिया है। डॉ. हसनैन ने ठीक ही लिखा है कि पूँजीवादी औद्योगीकरण  की प्रक्रिया धरती पर प्राकृतिक एवं स्वाभाविक मानवीय जीवन लीला की प्रक्रिया के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है। झारखण्ड के आदिवासियों के संदर्भ में इस तथ्य को चरितार्थ रूप में देखा जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ के आदिवासियों की सामुदायिक जीवन संस्कृति जिससे धरती पर स्वाभाविक जीवन लीला की प्रक्रिया स्वतः एवं निरंतर चलती है, उसे पूँजीवाद एवं इसकी औद्योगिकरण द्वारा नष्ट किया जा रहा है। यह सर्वविदित है कि यहाँ के आदिवासी अपने ऊपर होने वाले भूमि छिनतई संबंधी शोषण के खिलाफ अनेक विद्रोह एवं आंदोलन करते रहे हैं। यदि इन विद्रोहों एवं आंदोलनों के स्वरूप को ध्यान से समझा जाए तो हम पाएंगे कि इसके पीछे मूल कारण भूमि छिनतई तो थी ही लेकिन उससे भी बढ़कर यह पर्यावरण के साथ अपने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं संबंधों की सुरक्षा के लिए की गई थी। इसलिए हमें इनके ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों एवं विद्रोहों को स्थानीय नहीं बल्कि वैश्विक पर्यावरणीय महत्व की दृष्टि से भी देखना चाहिए।

 

1908 का छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम आदिवासी भूमि की सुरक्षा आवरण है, यह सर्वविदित है। यह आदिवासी भूमि संबंधी अधिकार की व्याख्या करता है। इसके प्रथम संस्करण में आदिवासी भूमि के अहस्तांतरणीय होने की बात की गई है, जबकि इसके संशोधनों में व्यक्तिगत अधिकार की अवधारणा दिखलाई पड़ती है जहाँ सामुदायिक एवं सहभागिता पर आधारित आदिवासी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती नजर आती है। यही वजह है कि आज आदिवासी भूमि बाजार की सबसे कीमती वस्तु बन गयी है। यदि हम इसे समय की आवश्यकता भी मान लें, फिर भी हमें इस प्रश्न का जवाब नहीं मिलता है कि एक आदिवासी की भूमि की कीमत बहुत ज्यादा है, फिर भी वह गरीब है। यदि वह भूमि की बिक्री भी कर दे तब भी वह अपने जीवन स्तर को बेहत्तर नही बना पाता है, क्यों? संभवतः इसका उत्तर हमें सामुदायिक जीवन संस्कृति की अवधारणा में ही मिलेगा। पारंपरिक एवं स्वाभाविक रूप से उनके सामुदायिक अधिकार संबंधी अवधारणा में व्यक्तिगत खरीद-बिक्री की कोई गुंजाइश नहीं है तो पूँजी निर्माण की कैसे गुंजाइस हो सकती है। इसलिए व्यक्तिगत सम्पति पर आधारित आधुनिक अर्थव्यवस्था में बिना पूँजी निर्माण कौशल के प्रगतिशील समाज में आदिवासी पिछड़ते जा रहे हैं। यहाँ भी हम पाते हैं कि एक आदिवासी किस तरह से पूँजीवाद का शिकार हो गया । ब्रिटिश शासन पूँजी आधारित अर्थात व्यक्तिगत अधिकार संबंधी शासन थी जो आदिवासी सामुदायिक अधिकार के बिल्कुल विपरीत थी।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि आदिवासी भूमि संबंधी अधिकार की सुरक्षा को लेकर कई कानूनी प्रावधान हैं, पर कहीं भी ऐसा प्रावधान नहीं है जो आदिवासियों के मौलिक जीवन संस्कृति को सम्मानपूर्वक सुरक्षित बनाए रखने की बात करता हो। डॉ उमेश कुमार वर्मा ने अपनी किताब 'झारखंड का जनजातीय समाज' में उल्लेख किया है  कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए अनेक विकास कार्यक्रम चलाए गए लेकिन ये सभी कार्यक्रम आदिवासी मौलिक जीवन शैली अथवा संस्कृति के अनुकूल नहीं थे। इसीलिए इनका कोई विशेष लाभ इन्हें नहीं मिला। हमें चाहिए कि आदिवासियों की मौलिक जीवन संस्कृति को बनाये रखते हुए वर्त्तमान वैश्विक जीवन संस्कृति को परखें, समझें और यदि आवश्यकता पड़े तो उसे अपनाएं अथवा उसमें बदलाव लाएं। आदिवासियों की वास्तविक सम्मान तभी होगी जब उनकी मौलिक जीवन संस्कृति को सम्मानपूर्वक बरकरार रखा जाए एवं आवश्यकतानुसार इसकी आधुनिक अर्थव्यवस्था के साथ सामंजस्य स्थापित की जाय और उनकी मौलिक सांस्कृतिक जीवन को बाधित किए बिना प्रगतिशील समाज में सहभागी बनाया जाए। जैसा कि डॉ हसनैन ने उल्लेख किया है कि आदिवासियों को भारतीय समाज में अपने सम्मान के अनुरूप अपने लिए एक स्थान की खोज करनी चाहिए लेकिन यह ध्यान रहे कि इसमें राष्ट्र की एकता और शक्ति को क्षति ना पहुँचे।

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