


असुर लोक कथा में बोंगाओं की उत्पति की कहानी

ब्युला भेंगरा

आदिवासियों के बीच बोंगाओ या भूतों की उत्पत्ति के संबन्ध में अलग अलग कथाएं हैं। असुर लोक कथा में बोंगाओ की उत्पत्ति के संबन्ध में कई किवदंती है। कुछ भले बोंगा होते है एवं कुछ बुरे। इनमें से कई दुष्ट प्रेतात्मा होते है जो लोगो को कष्ट देते है। वर्तमान समय में छोटानागपूर के आदिवासी गाँवों में या किसी परिवार में विपत्ति आति है तो आज भी कई आदिवासी उन बोंगाओं को संतुष्ट करने के लिए कई रीति – रिवाज, विधि पूजा - पाठ और कर्म - कांड करते हैं। हर क्षेत्र में इनको संतुष्ट करने वाले भोक्ता या बोंगा भगाने वाले कुछ विशेषज्ञ होते हैं। इनकी सहायता से आदिवासी अपने उपर आए विपत्ति को भगाने में विश्वास रखते हैं। कई बार उनको महंगे चढ़ावा चढ़ाने पड़ जाते हैं।
असुर लोककथाओं के अनुसार बहुत पहले की बात है एक सेमल पेड़ पर दो विशाल गीद्ध रहते थे। एक का नाम राय गीद्ध दूसरी जो उसकी पत्नी थी उसका नाम जटा गीद्ध था। इस पेड़ पर दोनों ने अपने लिये विशाल घोंसला बना लिया था। आगे चलकर जटा गीधनी ने उस घोंसले में अनेक अंडे दिए। छः महिने अंडा देने के बाद सभी अंडे से गिद्ध के बच्चे बाहर आ गए। अपने छोटे बच्चों का पेट भरने के लिए राय गिद्ध और जटा गिद्ध पास के ही असुर गाँव से मानव बच्चों को मारकर उन्हें खिलाने लगे। अपने बालकों के लगातार गायब होने से असुर गाँव में कोहरम मच गया। जब असुरों के सरदार को यह पता चला कि सेमल पेड़ पर रहने वाले गिद्ध ही उनके शिशुओं को उठाकर ले जाते हैं तो असुरों द्वारा उन मानवभक्षी विशाल गिद्धों को मारने की योजना बनाई गई। वहाँ रहने वाले वीर असुरों ने बारह जंगलों में लकड़ी को जलाकर बड़ी मात्रा में कोयला तैयार किया और सोलह जंगलों से लोहा पत्थर इकट्ठा कर ले आए।
असुर विशाल घमन भट्टी बनाकर उसमें लोहा गलाने का कार्य शुरू कर दिये। दिन रात धमन भट्टी जलता रहा और लोहा पत्थर उसमें वे डालते गए और लोहा पिघलता गया, इसी लोहे से असुरों ने विशाल तीर और धनुष का निर्माण किया। एक असुर युवति ने उसी तीर धनुष से राय गिद्ध और जटा गिद्ध को मार डाला। इस प्रकार दोनों गिद्धों के मर जाने के बाद असुरों ने उस सेमल पेड़ को भी काट डाला किन्तु वह तो एक जदुई सेमल का पेड़ था। अतः काटने के बाद भी वह बढ़ने लगा। सेमल पेड़ फिर से बढ़ने ना पाए इसके लिए उन्होंने पेड़ के ठूंठ को विशाल लोहे के कठैत से ढक दिया। परन्तु वह जदुई पेड़ नीचे - नीचे बढ़कर टोंगो और गुमला के बीच चार किलोमीटर तक फैल गया। उस क्षेत्र की लम्बी पहाड़ी उसी सेमल वृक्ष का बदला हुआ रूप है जिसे वर्तमान में सारू पहाड़ कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि उस विशाल जदुई सेमल पेड़ पर रहने वाले गिद्धों के बच्चे मरकर दुष्ट प्रेतों में बदल गए और वे ही खूँटभूत, दरहा बोंगा या डरहा बोंगा, मुआ, सतबहिनी, अल्सी, फल्सी आदि नाम से दुष्ट प्रेतों के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
आज भी असुर उन दुष्ट प्रेतों से काफी भयभीत रहते हैं और उनको संतुष्ट रखने के लिए विभिन्न अवसरों पर बलि देकर अपने और अपनी वंश के लिए गोआर विनति करते हैं। मुण्डाओं के बीच भी बोंगाओं की प्रबल मान्यता है। वे अपने धार्मिक अनुष्ठानों में अक्सर अवदान का पाठ करते हैं। सूर्यास्त से सूर्योदय तक के बीच का समय बनिता या दुष्ट बोंगाओं एवं जादू टोना के लिए प्रभावी समय रहता है, अतः इनके मध्य "सोसोटुपा" की पूजा द्वारा इन दुष्ट शक्तियों को सिंगबोंगा का भय दिखाकर घर से दूर रखा जाता है। फा. हॉफमैन ने मुण्डारी कविताओं की चर्चा करते हुए असुर कहानी का उल्लेख किया है, इसमें असुरों के अवदान का एक पक्ष क्षेत्रीय कल्यानकारी बोंगाओं का जन्म का वर्णन है। यह कविता भजन के रूप में सिंगबोंगा की स्तुति में है जिसमें बताया गया है कि सिंगबोंगा ने असुरों का विनाश करने के लिए खसरा बालक का रूप धारण किया, क्योंकि असुर लागातार लोहा गलाने की भट्टी जलाकर सृष्टि का विनाश कर रहे थे। वे लोभी और दम्भी हो गए थे, अतः सृष्टि की रक्षा के लिए सिंगबोंगा ने असुरों का विनाश किया । जब सिंगबोंगा असुरों का विनाश कर स्वर्ग की ओर वापस जाने लगे, तब असुरों की विधवाओं ने अपने हाथ से सिंगबोंगा के पांव पकड़ लिए और आकाश की ओर जाने से रोकने लगी और कहा कि वापस जाने से पहले उनके जीने खाने की व्यवस्था कर दी जाए तब सिंगबोंगा ने पैर झटक कर उन्हें धरती पर पटक दिया तो असुर विधवाएँ पृथ्वी की विभिन्न भागों में गिर गई। जिन जिन स्थानों पर वह गिरी वह वहाँ की बोंगा बन गई। इन बोंगाओं को सिंगबोंगा द्वारा आदेश दिया गया कि वे अपने क्षेत्र के लोगों की भलाई करेगी और इन्हें खुश रखने के लिए मुण्डा, पाहन या सोखा उन्हें चढ़ावा चढ़ाते रहेंगे।
मुण्डाओं के क्षेत्र में धार्मिक पूजा के अवसर पर सिंगबोंगा की स्तुति में पाहन द्वारा असुर अवदान का सस्वर पाठ किया जाता है ताकि उनका घर नजर गुजर "अदात" से सुरक्षित रहे तथा उनके मध्य किसी प्रकार का रोग, आपदा ना आए और परिवार सुख सम्पन्नता से भरा पूरा रहे। झारखण्ड में जनजातियों के विभिन्न क्षेत्रों में दुष्ट बोंगाओं को निकालने के अलग - अलग तरीके हैं कुछ क्षेत्रों में "देवड़ाओं" द्वारा गअः ( प्रेत्मात्माओं को निकालने के विभिन्न तरीके ) किया जाता है, इन तरीकों द्वारा झाड़ - फूककर इन्हें बाहर किया जाता है साथ ही बकरा, भेड़ा या मुर्गा इत्यादि का खून चढाया जाता है। देवड़ा करने वाले पहले इन रीति - विधियों को सीखते हैं, वे कभी किसी का जूठन नहीं खा सकते। फा. हॉफमैन का कहना है "असुर कहानी की रचना उस वक्त हुई थी जब मुण्डारी भाषा पानी की तरह शुद्ध था, इस कहानी को प्राचीन काल में रचित मानते हैं, असुर अवदान की भाषा और शैली ही इसकी प्राचीनता को दर्शाती है।"