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बिनोद गुरुजी 

आजादी 

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गुलाम भारत में वो क्या दिन थे जब हम आजादी को तरसते थे।
उन जुल्मों सितम के साये में, रोटी कपड़ा मकान को तरसते थे।
तरसता हमारा देश आजादी के मसीहा को
पुकार देश कहता कब तक सहोगे जुल्मी अत्याचार
वीर भगत, सुभाष, गांधी, बिरसा  आजादी के लिए थामे तलवार
वीर सपूत अपनी क़ुर्बानी देते और लगाते आजादी की ललकार
भूखे को रोटी, तन को कपड़ा, रहने को घर आजादी के मायने थे
क्या यही दिन के लिए गोली तो क्या फांसी पर खड़े थे।
क्या................... यही देश की आजादी थी?

देश की आजादी की कमान गाँधी, नेहरू ने संभाली थी।
भारत की तकदीर संविधान के पन्नों पर अम्बेडकर ने लिखी थी।
समानता, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता की कहानी हर भारतीय के लिए लिखी थी।
हर हाथ को काम मिले, हर किसी को सम्मान मिले, मिले सबको भोजन सपना था
रंग भेद जाति धर्म से उपर उठकर देश को आगे बढ़ाना था।
जन -जन के नारों में देश भक्ति को जगाना था।
महिला, युवा, मजदूर, किसान के लिए यही देश की आजादी थी।

मिली थी आजादी आधी रात को, पर आज तक सुबह न हो पाया।
देश चलाने की बात आयी मच गयी होड़, सत्ता पाने को नेताओं ने लगाई दौड़।
सबने ख्वाब दिखाये, दिखाये भारत की तस्वीर विश्व के नक्शे पर
विकास के बुंदो को पी गये मिलकर नेता लालफिताशाही अफसर।
क्या.................... यही देश की आजादी थी?

मजदूरों के हाथ तोड़ते रहे जिन्दगी के पत्थर,
बना डाली पराये के महल, पर खुद के रहने को मिला आज तक का गटर
नहीं मिल पाया पूरा वेतन, बस पोंछता रह गया अपना धूलों से ढंका तन,
लड़खड़ाती जुबानों से पुछता कब मिलेगा अपनी मेहनत का पूरा वेतन?
शोषित प्रताड़ित दलित, आदिवासी लगाता अधिकार की गुहार
पर कौन सुनता कपट मन से इनकी पुकार।
मैं पूछ बैठता, क्या.................... यही देश की आजादी थी?

उन जवानों को कैसे भूलूँ , देश की रक्षा में जो परिवार भलू गये।
क्या रोज़ के अखबार के पन्नों पर शहीदों के नाम छपने रूक गये?
हर सुबह शाम याद सताती, गुजरे लम्हों की याद में आँखों में पानी भर आता।
आश लिए बुढ़ी माँ, सोच में पड़ी विधवा, कर रही भविष्य की रह- रहकर चिंता।
विधवा माँ के अंचल पकड़े नन्हा बालक, थामे शहीद पिता की तस्वीर को
भटकते- फिरते आश्वासन के साये में, रह रहकर कोसते किस्मत की लकीर को।
क्या.................... यही देश की आजादी थी?

संविधान की शपथ लेने वाले, संविधान की गरीमा को भूल गये।
सत्ता की अहंकार में उसकी हिफाजत को भूल गये।
जाति धर्म का जहर पीकर हम भारतीय से हिन्दु- मुसलमान हो गये।
नफरत की आँधी में हम एक दूसरे को मरने मारने को उतारू हो गये।
धर्म की राजनीति में हम मानवता को भलू गये।
हम इन्सान थे पर अब जानवर बन गये।
'हम हैं धर्म के रक्षक' बने थाम लिए तलवार को, 
कितने कट गये इन्सान, और कितने हुए अनाथ को
हम कभी नहीं सोचे उसके बच्चे, घर परिवार को
वादा था देश की भूख बेरोजगारी मिटाने को
पर गरीबी तो मिटी नही, पर मिटा दिये दुनिया से गरीबों और किसानों को
क्या.................... यही देश की आजादी थी?

वादा था देश में भ्रष्टाचार बेराजे गारी हटाने का।
पर भ्रष्टाचार तो रूका नहीं, अत्याचार घटा नहीं। 
गली -गली में युवा नशे के शिकार और पत्थरबाज हो गये।
दर -दर ठोकरे खाते, गरीब के हाथ लालकार्ड हो गये।
नेताओं की जाति धर्म के चाल में देश उलझ गया।
भूल गया सबकुछ रोजी- रोटी कपड़ा और मकान को।  
फिर मैं पूछ बैठता क्या यही देश की आजादी थी?

पता भी न चला कब आटा महंगा हो गया और डाटा सस्ता
मंहगाई की मार ने कर दिया सबका हाल खस्ता।
गरीब की थाली से रोटी गायब हो गई
अमीरों की झोली में पैसों की बारिश हो गई।
भाग चले विदेश को, पर खोज न सका कोई।
पर मानवता के खातिर विदेश छोड़ अपने देश आ गये,
तिरस्कृत समाज की सेवा में लगे आज वो देशद्रोह हो गये।
पर मन मारकर पूछता, क्या......यही देश की आजादी थी?


 

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