



डा० संजय बाड़ा
बिरसा के बाद अबुआ दिशुम की चुनौतियाँ

‘खूंटकट्टी मुंडा देश में बिरसा का नाम लिखा हुआ है बिरसा के नाम का प्रचार प्रसार सखुआ के पत्ते पर हो रहा है। धरती और आकाश में खूंटकट्टी और हो आदिवासियों के देश में बिरसा का नाम लिखा हुआ है’ (एक प्रचलित लोकगीत)
बिरसा की मृत्यु के बाद छोटानागपुर का यह प्रसिद्ध उलगुलान समाप्त हो गया किंतु इस उलगुलान की आत्मा जीवित रही। अबुआ दिसुम का सपना अधूरा था। जब जेल में बिरसा की मृत्यु हुई तब उनकी मृत्यु के कारण स्पष्ट नहीं थे। कुल गिरफ्तार विद्रोहियों की संख्या 482 थी। जिनमें से कुछ अनुयायियों पर मुकदमे चलाए गए और उन्हें सजा सुनाई गई । बिरसा के बाद यह आंदोलन अमर हो गया एवं बाद में चलकर इतिहास के सुनहरे अक्षरों में अंकित भी हो गया। इस आंदोलन से आदिवासियों ने पहली बार यह अनुभव किया कि वे अपनी सभी समस्याओं का समाधान तभी निकाल सकते हैं जब उन्हें राजनीतिक रूप से भी स्वतंत्रता भी प्राप्त हो जाए। बिरसा का उलगुलान छोटानागपुर के आदिवासियों का एक ऐतिहासिक आंदोलन था जिसने अंग्रेजी सरकार को अबुआ दिसुम के हितों की रक्षा करने के लिए मजबूर कर दिया था।
समय के साथ ही इस आंदोलन की चर्चा छोटा नागपुर के बाहर भी होने लगी थी । राष्ट्रीय स्तर पर इस आंदोलन के दमन की भर्त्सना की गई। कोलकाता से प्रकाशित इंग्लिश मैन पायोनियर और स्टेटसमैन जैसे समाचार पत्रों द्वारा मुंडाओं के ऊपर किए गए अत्याचारों की आलोचना की गई थी। प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘स्टेटसमैन’ ने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन से अपील की थी कि वे स्वयं इस मामले की छान-बिन करें। इस अपील एवं वर्तमान परिस्थितियों ने लार्ड कर्जन का ध्यान इस ओर खींचा। अगस्त 1900 में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉन वुडबर्न राँची आये और उन्होंने जिला अधिकारियों से इस समस्या पर गहन विचार विमर्श किया। भूमि बंदोबस्त की मांग बढ़ती जा रही थी।
फरवरी 1904 में जब लेफ्टिनेंट गवर्नर पुनः राँची आये तो उन्हें भय था कि समान्य भूमि सर्वेक्षण एवं बंदोबस्ती से उतेजना फैल सकती है और विद्रोह की प्रवृत्ति फिर से जागृत हो सकती है। इसी अवसर पर छोटानागपुर के विभिन्न वर्ग के लोगों ने उन्हें एक आवेदन दिया कि भूमि बंदोबस्त का कार्य अन्य क्षेत्रों में भी किया जाय। उस समय छोटानागपुर के कमिश्नर ए. फोर्ब्स थे। उन्होंने इस विषय पर जे. बी. होफमैन से चर्चा की। होपमैन ने उन्हें एवं अन्य अधिकारियों को आश्वस्त किया कि ऐसी परिस्थिति की कोई संभावना नहीं थी क्योंकि रैयत स्वयं भूमि बंदोबस्त चाहते थे ताकि जमींदारों और महाजनों के शोषण से उन्हें बचाया जा सके। उन्होंने यह भी बतलाया कि उन्हें भूमि संबंधी सुरक्षा की भावना दी जानी आवश्यक थी। अब फोर्ब्स पूरी तरह आश्वस्त हो चुके थे उन्होंने इस विद्रोह के लिए सदियों से हो रहे आदिवासियों के ऊपर शोषण एवं अत्याचार को जिम्मेदार माना और इसलिए उसने रांची जिला को पूर्ण पैमाइश और बंदोबस्त तथा रकूमत एवं बैठ बेगार की समाप्ति के लिए सरकार के समक्ष अनुशंसा की जिससे मुंडा देश में खूंटकट्टी भूमि व्यवस्था की पहचान को बनाए रखा जा सके।
सरकार ने लिस्टर और बाद में जॉन रीड के अधीन 1902 से 1910 ईस्वी तक रांची जिले की पैमाइश तथा बंदोबस्ती के लिए कार्रवाई की। लिस्ट और रीड के सर्वे रिपोर्ट से कई बातों का पता चला। बिरसा आंदोलन का फल यह हुआ कि एक जिम्मेवार शासन आदिवासी लोगों के बीच स्थापित हुआ। आदिवासियों को अत्याचार से बचाने का काम यहां के उपायुक्त को सौंपा गया उनके पुश्तैनी मुंडारी खूंटकट्टी अधिकारों को सुरक्षित रखने के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया। 11 नवंबर 1908 ईस्वी को छोटानागपुर काश्तकारी कानून लागू किया गया इसमें स्थानीय परंपरागत अधिकारों का समावेश किया गया तथा आदिवासियों के पुश्तैनी भूमि के अधिकार को मान्यता दी गई। इस कानून के अंतर्गत उपायुक्त जनजातियों के संरक्षक के रूप में उभरा अब उसके आदेश के बिना जनजातियों की कोई भी भूमि हस्तांतरित नहीं हो सकती थी उनको पुश्तैनी मुंडारी खूंटकट्टी, भुइँहरि तथा सामाजिक सेवा के बदले में प्राप्त परंपरागत जमीन का हस्तांतरण रोकने को उपायुक्त को सकारात्मक रूप से जिम्मेवारी दी गई। 1908 ई का सीएनटी एक्ट काफी विस्तृत है इस विषय पर अलग से और विस्तृत चर्चा बाद में की जाएगी।
सरदारी लडाई और बिरसा के उलगुलान ने ब्रिटिश सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था और उन्हें सी. एन. टी. एक्ट 1908 जैसा कानून बनाना पड़ा जो जनजातीय भूमि व्यवस्था का सुरक्षा कवच है ।
झारखंड निर्माण के बाद भी अबुआ दिशुम की चुनौती बरकरार है। आज समय की मांग है कि इन चुनौतियों के समाधान पर ध्यान केंद्रित किया जाय। अबुआ दिशुम की पहली चुनौती है आदिवासी पहचान को बनाये रखना। झारखंड नवनिर्माण के इतने वर्ष बाद आदिवासी पहचान बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। दूसरी चुनौती भाषा और संस्कृति को जीवित रखने की है। आदिवासी समाज अपनी भाषा एवं संस्कृति के बिना अस्तित्वहीन है। तीसरी चुनौती आदिवासी स्वायत्तता को बनाये रखना । झारखंड 5 वीं अनुसूची क्षेत्र है पर आज भी आदिवासी अपनी स्वायत्तता स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहें है। चौथी चुनौती है भूमि की सुरक्षा। आदिवासियों के लिए भूमि उनके जीवन का एक अभिन्न भाग है। भूमि आदिवासी जीवन की संस्कृति, परंपरा एवं उनके अस्तित्व से जुड़ा है पर आज भी आदिवासी अपनी भूमि बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। पाँचवी चुनौती जल जंगल एवं प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की है । जंगल समाप्त हो रहे है। नदी एवं तालाबों का अस्तित्व समाप्त हो रहा है। यह चुनौती बढ़ती जा रही है। अंतिम चुनौती अबुआ राज की है यह सपना अभी भी अधूरा है। राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना एवं परम्परागत शासन व्यवस्था स्थापित करना एक बड़ी चुनौती है। इन चुनौतियों का समाधान कर के ही बिरसा एवं अन्य वीर भूमिपुत्रों के अबुआ दिशुम अबुआ राज के सपने को पूरा किया जा सकता है।
“बिरसा के बाद कहाँ है हम और आप” स्वमूल्यांकन करें।