



अंजु टोप्पो
बिरसा से भगवान बिरसा
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Source: https://en.wikipedia.org/wiki/Birsa_Munda#/media/File:Birsa_Munda,_photograph_in_Roy_(1912-72).JPG
आदिवासी आंदोलनों के इतिहास में बिरसाइत आंदोलन एक अदभुत और अचंभित कर देने वाला आंदोलन है। इस उलगुलान के अगुवा बिरसा मुंडा को जितना सम्मान प्राप्त हुआ है उतना झारखंड के किसी भी आंदोलनकारी को प्राप्त नहीं है। बिरसा मुंडा को हमेशा ही भगवान बिरसा या धरती आबा कहकर संबोधित किया गया है। एक आम व्यक्ति से भगवान बनने की यात्रा अपने आप में ही काफी रोचक विषय है, ध्यान आकृष्ट करती है परन्तु साथ ही इसकी सार्थकता पर भी प्रश्न उठाती है। क्या बिरसा सच में भगवान थे? क्या उचित है उन्हे भगवान कहा जाना?
इन सवालों के जवाब स्वयं से प्रश्न करने पर ही प्राप्त होंगे। भगवान की जरूरत हमें क्यों होती? धर्म हमें क्या सिखाता? आपने स्वयं मे यह महसूस किया होगा कि जब आप खुद को समस्याओं में उलझा, असहाय पाते हैं तो आप ईश्वर को पुकारते हैं। पीटर वर्सली ने भी इसकी चर्चा की है कि एक नेता तब तक सफल नहीं होगा जब तक उसका समाज व्यापक विसंगतियों से ग्रस्त न हो।[1] समाज में व्यापक अव्यस्था है तो जनता एक नेता बना सकती है या ढूंढ सकती है। पीटर वर्सेली, मेलानेशियन मिलेनारियन मूवमेंट का अध्ययन करते हुए यह लिखते है कि तनाव के समय में नेताओं और नए विचारों का एक भंडार तैयार होता है जो संकट स्तर पहुंचने पर लिया जा सकता है। बिरसा का उदय भी तब हुआ जब नयी शक्तियों के प्रभाव में आकर परम्परागत मुंडा समाज विघटन से जूझ रहा था। दिकुओं के प्रवेश ने पूर्व की संरचना को काफी प्रभावित किया था। महाजन, साहूकार, एजेंट, अंग्रेज़ अधिकारियों के हस्तछेप से गांव के पुराने प्रधान मुंडाओं और उनकी संस्थाओं जैसे पहड़ा पंचायत की शक्ति छीन ली गई थी। विवादों को सुलझाने के लिए मुंडा संस्थाओं का स्थान अब अंग्रेज़ी शासन द्वारा स्थापित अदालतों ने ले ली थी। जमीन छीन जाने के विरुद्ध लगभग 35 वर्ष से की जा रही मुल्की लड़ाई (1860-1895) का कोई ठोस परिणाम नहीं निकल पाया था। मिशनरियों से सहायता की उम्मीद थी पर ये भी काम नहीं आए। हमेशा की भांति ही आदिवासियों को नजरंदाज कर महाजनों को मुनाफा पहुंचाया जा रहा था। इसके साथ साथ समाज मे नैतिक पतन भी प्रत्यक्ष था। लड़कियों को फसाने का काम एजेंट किया करते थे, जिसमे उनका साथ समाज के कुछ लोग चंद पैसों के लिए देते थे। शराब का प्रचलन भी जोरों से था। समाज कई विसंगतियों, असफलताओं से जूझ रहा थी, जरूरत थी एक मसीहा की जो उन्हे राहत दिला सके।
बिरसा समय के साथ यह समझ चुके थे कि - "टोपी टोपी एक टोपी"[2], अर्थात सब एक से है, सब स्वार्थी, सब लाभ निष्कर्ष करने वाले। बिरसा अपने दायित्वों को जल्द ही समझ चुके थे। जैसे कि रायक्रॉफ्ट भी कहते है कि उनकी आत्मधारना ने दो शक्तिशाली मानसिकता को आत्मसात किया - मसीहावाद और क्रांतिकारी सक्रियता। उलगुलान के लिए एक गहरी प्रतिबद्धता की जरूरत थी जो सिर्फ एक योग्य नेता ही कर सकता था। वो योग्य नेता और कोई नहीं बल्कि बिरसा मुंडा था।
बिरसा का रातों रात रूपांतरण हुआ था, उन पर बिजली गिरी थी और उन्हे ईश्वर का संदेश प्राप्त हुआ था। यह बात तेजी से गांव गांव फैल गई थी। लोग उनके दर्शन करने के लिए आने लगे। उन्होंने अपने आपको 'धरती आबा' अर्थात पृथ्वी का पिता घोषित कर दिया । वे तुलसी की पूजा करने लगे, जानेऊ और धोती पहनने लगे। धोती पहनने का चलन उन लोगो मे था जो अपने आप को उच्च समझते थे। गुहा ने इस विषय में लिखा है कि सबाल्टरन के द्वारा विद्रोह के समय कुलीन वर्ग के कपड़ों को प्रयोग किया गया है। अर्थ स्पष्ट है कि समाज अपने आप को किसी से कम ना आंके। बलि, मांस और शराब सेवन पर उन्होंने पाबंदी लगा दी। ये पाबंदी अर्थव्यस्था में सुधार और समाज में नैतिकता को प्रोत्साहन देने के लिए कि गई थी। देखा जाए तो उनके इस नए धर्म पर इसाई धर्म, वैष्णव और प्रकृति धर्म का असर दिख रहा था। लेकिन व्याहारिक तौर पर ये ईसाइयों के विरुद्ध थे। नए धर्म के द्वारा उन्होंने मुंडा समाज की विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया और उनकी हीन भावना दूर कर उनके आत्मसम्मान को वापस लाने कि कोशिश की थी।
गांव में जब चेचक फैला था तो कई लोगो ने बिरसा को दोषी माना था ।पर जब बिरसा ने स्वयं जाकर लोगों की सेवा की और वे ठीक है गए तो उनका विश्वास पक्का हो गया। बिरसा के समकालीन फादर हॉफमैन ने उनकी झोपडी के आगे रोगियों की लंबी पंक्तियां देखी थी, जिनकी गहन आस्था धरती आबा के प्रति थी। जो रोगी ठीक नहीं होते थे वे अपनी आस्था मे कमी को मानते थे। लोग उनकी उपासना के लिए भी जुटते थे। अब तक बिरसा की सोच धार्मिक थी। लेकिन सरदार जो मुल्की लड़ाई की असफलता से जूझ रहे थे उन्होंने बिरसा को राजनीतिक लड़ाई शुरू करने के लिए सहमत किया। वे बिरसा का गांवों में बढ़ चढ़कर प्रसार करने लगे। सरदारों में चलकढ़ के मांगा मुंडा व जॉन मुंडा, नारंग के मार्टिन मुंडा और वीरसिंह मुंडा सक्रिय थे। धर्म का प्रयोग राजनीतिक चेतना के लिए किया जाने लगा। इसे एक सक्रिय बल के रूप में देखा जा सकता है जो समाज को एकीकृत कर रही थी। धर्म का प्रयोग राजनीतिक करवाई का नेतृत्व करने और प्रमुख व्यस्था को उखाड़ फेंकने के लिए किया गया।
बिरसा का प्रभाव जनमानस पर ऐसा था कि 1895 में उनके आह्वान पर करीब 6000 लोग चलकद की पहाड़ी पर एकत्रित हो गए थे। उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि दुनिया को अंत होने वाला है ,जो पहाड़ पर रहेंगे वो बच जाएंगे अतः लोग विश्वास प्रकट करते हुए आ गए। बिरसा के साथ लोगों को असीमित शक्ति का आभास होता था। वे तार्किक नहीं सोचते थे और कोई भी कदम उठाने के लिए तत्पर रहते थे। जब बिरसा ने कहा गोली पानी बं जाएगी उन्होंने इस पर तनिक भी संदेह नहीं किया और अदम्य साहस का प्रदर्शन किया। बिरसा से उन्हे अदभुत शक्ति प्राप्त होती थी।
हालांकि 3 फरवरी 1900 को बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और 9 जून 1900 को जेल में इनकी मृत्यु हो गई, लेकिन सच्चाई यह है कि बिरसा मरे नहीं क्योंकि लोगों के लिए वो कोई आम व्यक्ति नहीं वे आबा थे, भगवान थे और भगवान मरते नहीं। हॉफमैन ने इन्हे केवल मुंडाओं का भगवान नहीं वरन् छोटानगपुर का भगवान कहा है क्यूंकि सभी मुंडा, उरांव बिरसाइत के अंतर्गत आ गए थे। इन्होंने भगवान की भांति ही जनमानस को उनकी समस्यों से निजात दिलाई थी। दीकुओं के हस्तछेप को रोका, प्रशासन की इकाइयों को जनता के लिए सुविधाजनक बनाने में योगदान किया, कुछ खुंटकट्टी गांव को बचाने में ये सफल रहे ।
[1] Worsley,Peter.1968. The trumpet shall sound: a study of ‘Cargo Cults’ in Melanesia (second augmented ed.). New York: Schocken Books.
[2] Hoffmann, John-Baptist and Arthur Van Emelen (2015), “Khutkati”, Encylopaedia Mundarica, Hoffmann, J B and AVan Emelen (eds.), Vol VIII, Reprint, New Delhi: Gyan Publishing House.