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पद्यश्री जोएल लकड़ा  की एक रचना 1965 में 'आदिवासी' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था 'छोटानागपुर'।

यह एक कविता है जिसमें पद्मश्री लकड़ा ने छोटानागपुर की प्राकृतिक सौंदर्यता एवं उपलब्धि का बखान किया है साथ ही कुछ कमियों  को भी इंगित किया है। प्रस्तुत कविता दुर्लभ है । जिसका  हु बहु पुनर्लेखन इस अंक में किया जा रहा है।

​छोटानागपुर 

हे छोटानागपुर, हे राँची नगरी!

यद्यपि तू छोटा है-

तू भारत की रानी।

तेरे पावन वनों से-

गौतम बुद्ध को बुद्धि

तेरे ऊंचे पर्वत से

जैन धर्म की धारा

तेरी पवित्र भूमि में

येसु मसीह की ज्योति

तेरे पुण्य गर्भ में-

सारे भारत का (खनिज) भंडार

हे छोटानागपुर, हे राँची नगरी!

यद्यपि तू छोटा सा-

तुझ में भारत का लोहा

यद्यपि तू छोटा सा-

तुझ में भारत का कोयला

यद्यपि तू छोटा सा-

तुझ में भारत का यूरेनियम

यद्यपि तू छोटा सा-

तुझ में भारत का खनिज

यद्यपि तू पथरीला

तू तो विधाता का बागीचा

यद्यपि तू पहाड़ी

तू वनों की रानी।

तेरे शीतल वायु में

जीवनदायक धन है।

यद्यपि तू कंगाल सा

(फिर भी) तीनों लोक में धन्य है।

यद्यपि जगत ज्ञान छटा

तुझमें शत की ज्योति

यद्यपि तू पिछड़ा सा

(फिर भी) तू  हिन्द का अभिमान।

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