



ब्युला भेंगरा
छोटानागपुर में मुंडारी भाषा एवं साहित्य का समृद्ध इतिहास

आदिकाल से ही मुण्डा आदिवासियों का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक इतिहास रहा है जिसे मौखिक परम्परा के आधार पर युगों से सहेज कर रखा गया। इनके मध्य होने वाले प्र्र्रत्येक क्रियाकलाप पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होते चले आ रहे हैं।
मुण्डा जाति उन्मुक्त स्वच्छंद परिश्रमि बहादुर और स्वतंत्रता प्रेमी है उन्हें कलात्मकता, सृजनषीलता, रचनात्मकता प्रकृति ने दी है। उनका जीवन आनंद और रस भरे वातावरण में व्यतीत होता आया है। इनकी दुनिया मन को मोहित कर देने वाली प्रकृति की गोद में है।
मुण्डाओं की अनमोल सम्पदा लोक साहित्य को पन्नों में शिष्ट साहित्य के रूप में बदलने का कार्य कुछ साहसी लोगों ने शुरू किया और इसे समृद्ध मुण्डारी भाषा साहित्य के रूप में दुनिया के सामने लाया। जिसे हमेशा के लिये सुरक्षित कर लिया गया है। सर्वप्रथम जर्मनी के रहने वाले डाॅ. अल्फ्रेड नोत्तरोत्त 1867 ई. से 1913 ई. तक मुण्डाओं के मध्य रहकर ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के साथ - साथ मुण्डारी साहित्य को कलमबद्ध करने का कार्य किया और अनेक साहित्यों को लिखा। जिनमें ”मुण्डा पढ़व सिदा पुथि” - 1871 ई., ”मुण्डा इतुन एटअः पुथि” - 1871 ई., ”सिदा स्टैंडर्ड गिनती पुथि”, ”होड़ो जगर रेअः धरम पुथि बाईबल” 1911 ई., इसी क्रम में कई और साहित्यों की रचना की।
मुण्डारी साहित्य में अमूल्य योगदान देने का आरंभिक कार्य यूरोपीय विद्वानों ने किया है। इनमें दूसरा नाम फादर जाॅन बापतिस्त हाॅफमैन का है। इन्होंने 1877 ई. से 1914 ई. तक खांटी मुण्डारी क्षेत्र में रहकर इनके साहित्य को समृद्ध करने का कार्य किया। इनकी मुख्य रचनाओं में ”ए मुण्डारी ग्रामर विथ एक्सरसाइजेज” और ”इन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका” प्रमुख है। डाॅ. खातिर हेब्रम ने अपनी पुस्तक मुण्डारी भाषा साहित्यकारों का व्यक्तित्व कृतित्व में लिखा है - "मुण्डारी साहित्य के लिये इन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका जीवन देने वाली वृक्ष के समान है इस पुस्तक की वजह से मुण्डाओं के भाषा साहित्य, संस्कृति एवं जाति युगों तक जीवित रहेगी।"
जेम्स हेवर्ड जिनका जन्म असम के डिब्रूगढ़ में 15 सितम्बर 1899 ई. को हुआ। इनके पिता एक अंग्रेज अफसर थे और माता एक मुण्डा आदिवासी महिला जिनका नाम फुलमनी नाग था। जेम्स हेवर्ड की शिक्षा दीक्षा राँची के संत पाॅल और हजारीबाग के संत कोलम्बस काॅलेज में हुआ। इन्होंने आदिवासियों के बीच रहकर उनकी हक की लड़ाई लड़ी और साथ में मुण्डा भाषा साहित्य को समृद्ध बनाने का कार्य भी किया। इन्होंने ”मुण्डारी व्याकरण” रोमन लिपि में और मुण्डारी भाषा में लिखा इसके साथ ही ”मुण्डारी लिखने की प्रणाली” नामक पुस्तक की रचना की। इसके अलावा ”मुण्डारी सरल शिक्षा” नामक पुस्तक लिखी। ये सभी पुस्तक प्रिंटिंग प्रेस राँची- 65 से छापा गया जो कि मुण्डारी भाषा सीखने की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।
विदेशी बुद्धिजीवियों ने मुण्डाओं को साहित्य की रचना के साथ - साथ संस्कृतियों को पन्नों में सहेज कर रखना भी सिखाया और मुण्डओं ने भी पढ़ लिख कर अपने साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य में पहला नाम मेनस राम ओड़ेया का लिया जाता है जिनका जन्म 14 फरवरी 1884 ई. को बुरमा गाँव के हेटगोआ पंचायत में हुआ। इन्होंने मुण्डारी भाषा साहित्य के लिये अतुलनीय कार्य किया। उनकी लिखी प्रसिद्ध पुस्तक ”मतुरअः कहानि” पाँच भागों में लिखी गई हैै। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि मुण्डारी भाषा बोलने वाले, पढ़ने वाले और मुण्डारी भाषा में शोध करने वाले लोग अगर इस पुस्तक को नहीं पढ़ें है तो मुण्डारी भाषा के मूल चीजों को वे नहीं समझ सकते। फादर जाॅन हाॅफमैन ने इन्साइक्लोपीडिया मुंडारिका का 16 भाग मेनस राम ओड़ेया की सहायता से लिखा था। इनकी दूसरी रचना ”सिंगबोंगा ओड़ोः एटअः एटअः बोंगाको” है। इन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका के अंतिम खंड में इन्होंने A से U अक्षर के मुण्डारी भाषा के शब्दों को रोमन लिपी में और उन शब्दों का अर्थ अंग्रेजी भाषा में लिखा। अपनी इस अमूल्य धरोहर को संरक्षित करने में इनका देन अद्भुत है।
मुण्डारी भाषा के महान् गीतकार दाऊद दयाल सिंह होरो जिनका जन्म 1879 ई. को खिजरी प्रखण्ड के देवगामी गाँव में हुआ था। जब बिरसा मुण्डा का उलगुलान जोरों पर था उसी समय इस महान् व्यक्तित्व का जन्म हुआ। अपने जीवन में ईसाई धर्म का प्रचार करते हुए मुण्डारी भाषा में अनेक गीतों की रचना की जनमें ”सुरूद सलुकिद” -1931 ई., ”मुण्डरी धरम दुरंग भजन - ओडोः सुरूद सलुकिद” जिसे आज भी इन्टरमीडिएट मुण्डारी भाषा के छात्र होड़ो जगर इतु पुथि के अंतर्गत पढ़ते हैं। मुण्डारी भाषा साहित्य को समृद्ध बनाने का कार्य कम्पनी काल में और भी विद्वानों ने किया जो कि मुण्डा भाषा सीखने के लिये अब भी उतना ही महत्वपूर्ण है। निर्मल सोय जिनकी रचना ”जगर सड़ा”, ”होड़ो जगर मुंडी” ( मुण्डारी व्याकरण ), ”होड़ो कजि पुथि” ( मुण्डारी - अंग्रेजी - हिन्दी शब्दकोष) है। इन्होंने हमेशा मुण्डारी भाषा को बढ़ावा और प्रेरणा दिया। इनके अलावा कई ऐसे महान् व्यक्तित्व हैं जिन्होंने मुण्डारी भाषा के शिष्ट साहित्य को उन्नत बनाने के लिये अपना जीवन लगा दिया जिनमें एक और प्रमुख नाम श्री बुदु बाबू का है जिनका जन्म 19 वीं सदी के आस पास तमाड़ के बवैकुण्डी गाँव में हुआ था। कहा जाता बुदु बाबू के पिता गौर शिखर तत्कालीन तमाड़ केे राजा उपेंद्रनाथ शाहदेव क दरबार में गायक थे। अपने पिता की तरह वे भी लोक संगीत विद्या में निपुण थे। इन्होंने कई गीत - संगीत की रचना पंचपरगनिया, बांग्ला और नागपुरी में की। मुण्डारी भाषा साहित्य के क्षेत्र में उनकी अनमोल देन ”प्रीतपाला” एवं ”रामयणपाला” नामक पुस्तक है। प्रीतपाला में राधा और कृष्ण के प्रेम लीला का सुन्दर वर्णन किया गया है वहीं रामायणपाला में राम और लक्ष्मण के प्रिय हनुमान जी के कार्यों का काव्यात्मक वर्णन है। प्रीतपाला और रामायणपाला के माध्यम से उन्होंने यहाँ के ताकतवर आदिवासी युवक युवतियों को प्रस्तुत किया है। इसी क्रम में एक और महान् व्यक्तित्व हसादः क्षेत्र के ”सागू मुण्डा” का लिया जाता है। इनका जन्म जोजोहातु के पूर्व की और एक गाँव चोंडोर में हुआ था। सागू जी मुण्डाओं के प्राचीन इतिहास के जानकार थे इस कारण इनके पास कई विद्वान व्यक्ति अपने शोध कार्य के लिये हमेशा आते रहते थे जिनमें ब्रिटिश कालीन आइ. ए. एस. अफसर डाॅ. कुमार सुरेष सिंह, प्रो. सच्चिदानन्द सिन्हा (ए. एन. एस. इंस्टिट्यूट, पटना), प्रो. सुरेन्द्र प्रसाद सिन्हा (ट्राईबल एण्ड वेलफेयर रिसर्च इंस्टिट्यूट, राँची), प्रो. ए. बी. शरण (मानव विज्ञान विभाग, राँची विश्वविद्यालय, राँची) इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। मुण्डारी भाषा से सर्वप्रथम मुण्डाओं का इतिहास लिखने वाले सागु मुण्डा ही थे। इन्होंने मुण्डाओं के अनेक लोकगीतों का संग्रह भी किया है।
प्राचीन काल से आदिवासी मुण्डा समुदाय बीहड़ जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों में वास करता आया है इनकी सभ्यता संस्कृति इन जंगलों में छुपी हुई थी। लोक गीतों की मधुरता एवं इनमें छुपी सच्चाई को बाहरी दुनिया नहीं के बराबर जनती थी। इंग्लैंड के रहने वाले सर विलियम जाॅर्ज आर्चर ने पहली बार मुण्डाओं के बीच जाकर जहाँ - तहाँ बिखरे हुए लोक गीतों को घूम - घूम कर, लोगों से पूछ कर, इकट्ठा करने का कार्य किया। 1943 ई. में इन्होंने लिखा था कि ”दस वर्ष पहले तक आदिवासियों के गीतों को जानना बुद्धिमानों के लिये कठिन था। क्योंकि हमारे लोग किसी दूसरे का साथ सम्बन्ध नहीं रखते थे।” इनका उद्देश्य आदिवासियों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्राप्त करना था क्योंकि आर्चर साहब आई. ए. एस. परीक्षा पास कर 1931 ई. में बिहार के षाहाबाद जिले में डी. सी. के पद पर नियुक्त थे। ये काफी उच्च विचार के बुद्धिमान व्यक्ति थे। जिन चीजों को जैसा देखा, पाया, महसूस किया उनको वैसा ही लिखकर संग्रह भी किया। मुण्डाओं के बारे में उनके द्वारा लिखी पुस्तक ”मुण्डा दुरंग” 1942 ई. में छपी। केवल मुण्डाओं पर ही नही बल्कि उराँव, खड़िया के अलावा भारत की विविध संस्कृतियों को पन्नों पर उतार कर सुरक्षित रखने का महान् कार्य किया। आर्चर साहब की प्रमुख कृतियों में - ”द ब्लू ग्रोव: उराँव की कविता” 1940, ”खड़िया अलोंग” 1942, ”द बर्टिकन मैन” 1947, ”कांगड़ा पेंटिंग” 1952, ”कलकत्ता की बाजार पेंटिंग: कालीघाट षैली” 1953, ”गढ़वाल पेंटिंग” 1954, ”राजस्थान भारतीय पेंटिंग” 1957, आदि महत्वपूर्ण किताबें लिखी इनके अलावे भी कई और रचनाएँ लिखीं।
मुण्डा साहित्य के क्षेत्र में फादर पी. पोनेट के कार्यों का वर्णन किये बिना इस साहित्य का अधिकांश मैदान खाली रह जाएगा। इनका जन्म 06 मार्च 1910 ई. को बेल्जियम में हुआ था। 1931 ई. में वे भारत आए और झारखण्ड के खूँटी, बंदगाँव, शांतिपाड़ा, तपकरा के अलावे भारत के कई स्थानों में पुरोहित के रूप में कार्य किये। इन्हें मुण्डारी भाषा - भाषी लोंगों से काफी लगाव था और लोग इन्हें पसंद भी करते थे। इनके कार्यों के कारण मुण्डारी भाषा के विद्वानों में फादर पोनेट का नाम शिखर पर है। फादर पोनेट साहब ने एक ”इन्साइक्लोपीडिया मुण्डारिका” का सबसिडियरी वाॅल्यूम निकाला। ”हड़म होड़ो कोअः कजिको” (मुण्डा कहावतें और लोकोक्तियाँ) नाम की एक पुस्तक लिखी और इसे हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। मेनस राम ओडेया द्वारा लिखित पुस्तक ”सिंगबोंगा ओड़ोः एटअः एटअः बोंगाको” को लिखकर सजाने एवं अंग्रेजी में अनुवाद करने का काम भी इन्होंने ही किया। इनके अथक परिश्रमों के द्वारा ही मुण्डा साहित्य की बहुत सारी चीजें सुरक्षित हो गई हैं। वर्तमान युग में मुण्डाओं के मध्य भी आधुनिकता का प्रभाव देखने को मिल रहा है, मुण्डा भाषा की बहुत सारी मूल बातें पीछे छूटती चली जा रही हैं ऐसे में ब्रिटिश काल के दौरान विद्वानों द्वारा किया गया कार्य अद्वीतिय है। इसे मुण्डा समाज एवं साहित्य जगत हमेशा याद करेगा।