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सिविल सेवा क्षेत्र में जाने के लिए अधिक से अधिक आदिवासियों को प्रेरित करना आज के समय की आवश्यकता

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​डॉ. संजय बाड़ा 

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अभी हाल में ही यूपीएससी परीक्षा के फाइनल रिजल्ट आये है एवं कुछ दिनों पहले झारखंड में झारखंड में पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा छठवीं से 10वीं सिविल सेवा परीक्षा की आरंभिक परीक्षा 19 सितंबर को सम्पन्न हुए है। आदिवासियों के लिए सिविल सेवा परीक्षा वर्तमान में कितना प्रासंगिक है इसका विश्लेषण करना आवश्यक है। केंद्रीय स्तर पर होने वाले सिविल सेवा की परीक्षाओं में जहाँ मीणा आदिवासियों का प्रदर्शन प्रत्येक वर्ष की भांति सराहनीय है वहीं झारखंड जैसे आदिवासी बहुल प्रदेश के आदिवासियों का रिजल्ट संतोषजनक नहीं है। इसके कई कारण हो सकते है जिसका विश्लेषण करना आवश्यक है कुछ एकाध दो परिणामों को यदि छोड़ दे तो ऐसा लगता है कि आदिवासी युवकों में सिविल सेवा का आकर्षण कम हो गया है या यदि आकर्षण है भी तो इस टॉप लेबल के एग्जाम में अन्य लोगों से फाइट करने में शायद कुछ कमी रह जा रही हो।

 

इसकी पड़ताल करनी आवश्यक है। कुछ प्रश्न है जिनके उत्तर ढूढ़ने आवश्यक है

1) कितने प्रतिशत आदिवासी युवक युवतियां सिविल सेवा को अपना लक्ष्य मान कर अपना सम्पूर्ण समय इसके लिए दे रहे है?

2) कितने प्रतिशत अभिवावक अपने बच्चों को सिविल सेवा में जाने के लिए प्रेरित करते है?

3) कितने प्रतिशत अभिवावक अपने बच्चों के इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपना महत्वपूर्ण सहयोग अर्थात मेंटली सपोर्ट, आर्थिक सहयोग एवं अपना बहुमूल्य समय दे रहे है?

4) कितने युवक इन परीक्षाओं के लिए ईमानदारी पूर्वक तैयारी कर रहे है?

5) कितने युवक इन परीक्षाओं की तैयारी के लिए अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान दे रहे है?

6) यह सिविल सेवा परीक्षा धैर्य की भी परीक्षा है कितने लोग इसके लिए तैयार है?

7) समाज इन युवकों को सहायता देने एवं इनका हौसला बनाये रखने के लिए कितना तत्पर है और इसके लिए क्या प्रयास किये जा रहे है?

 

प्रश्न और भी है जिनका विश्लेषण आवश्यक है ऊपर दिए गए प्रश्न, विश्लेषण मात्र के लिए आरंभिक प्रश्न है जिनपर चिंतन करना आवश्यक है। वास्तव में आदिवासी समाज के लिए एक बड़ी चुनौती यह है कि अबुआ दिशुम का सपना देखने के लिए सिर्फ नेता बन कर ही काम करना काफी नहीं है, वर्तमान समय में आवश्यक है, नौकरशाही व्यवस्था का अंग बनकर अपने समाज के कल्याण के लिए कार्य करना। नौकरशाही वह व्यवस्था है जहाँ प्रशासनिक अधिकारी जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को कार्य करने में मदद करते है जहाँ जनता के चुने हुए प्रतिनिधि 5 वर्ष या विशेष परिस्थितियों में उससे कम वर्ष में बदलते रहते है वहीं प्रशासनिक अधिकारियों का यह वर्ग निरन्तरता के साथ अपना कार्य करता रहता है। आज के नवयुवकों को सिविल सेवा जैसी सेवाओं के महत्व के विषय मे अधिक से अधिक जानकारी देना एवं इसकी तैयारी के लिए उन्हें प्रेरित करना समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का परम कर्तव्य है। UPSC आरंभिक परीक्षा पास करने पर केंद्र सरकार द्वारा आगे मेंस परीक्षाओं की तैयारी के लिए मदद दिए जाने का भी प्रावधान है। आगे सिविल सेवा के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है जिसका उद्देश्य अधिक से नवयुवकों तक इस सेवा के महत्व के बारे में आरंभिक जानकारी पंहुचाई जा सके।

 

अंग्रेजों ने भारत में सिविल सर्विस एग्जाम (Civil Service Exam) की शुरुआत साल 1854 में की थी, जिसे संसद की सेलेक्ट कमेटी की लॉर्ड मैकाले की रिपोर्ट के बाद शुरू किया गया था।  इससे पहले सिविल सेवकों का नामांकन ईस्ट इंडिया कंपनी के निर्देशकों द्वारा किया जाता था, जिन्हें लंदन के हेलीबरी कॉलेज में ट्रेनिंग के बाद भारत भेजा जाता था। 1854 में सिविल सेवा आयोग की स्थापना के बाद 1855 में लंदन में प्रतियोगिता परीक्षा शुरू की गई। इसके लिए न्यूनतम उम्र 18 साल और अधिकतम उम्र 23 साल थी, लेकिन भारतीयों के लिए ये परीक्षाएं काफी कठिन थी।

 

कौन थे भारत के पहले IAS अफसर?

रवींद्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) के बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर (Satyendranath Tagore) पहले भारतीय थे, जिन्होंने 1864 में सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की थी। सत्येंद्रनाथ टैगोर आईएएस अफसर बनने वाले पहले भारतीय है। सत्येंद्रनाथ टैगोर परीक्षा की तैयारी करने के लिए 1862 में भारत से इंग्लैंड के लिए रवाना हुए थे। उन्हें 1863 में सिविल सेवाओं के लिए चुना गया और 1864 में इंग्लैंड में अपनी ट्रेनिंग की अवधि पूरी करने के बाद भारत लौटे। वह आधिकारिक तौर पर भारत के पहले आईएएस अधिकारी थे। इसके बाद उन्हें बॉम्बे प्रेसीडेंसी में तैनात किया गया था और कुछ महीनों के बाद अहमदाबाद शहर में तैनात किया गया।

सिविल सेवा के इतिहास में आदिवासियों के लिए स्वर्णिम उदाहरण मरांग गोमके जयपाल सिंग मुंडा ने दिया था। उन्होंने आई सी एस की परीक्षा पास की थी और उसकी ट्रेनिंग भी ले रहे थे पर हॉकी खेलने के जुनून ने उन्हें इस सेवा से अलग करने के लिए मजबूर कर दिया था।

आज कितने आदिवासी नवयुवक इस सिविल सेवा के तैयारी के प्रति गंभीर है। इसपर चिंतन करने की आवश्यकता है साथ ही यदि कोई आदिवासी इस सेवा की तैयारी करने के लिए आगे आ रहा है तो हम और हमारा समाज उनकी हौसलाअफजाई एवं मदद के लिए क्या प्रयास कर रहे है। इसपर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। आज यदि समाज के कल्याण के लिए कार्य करना है तो अधिक से अधिक नवयुवकों को सिविल सेवा के क्षेत्र में जाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मेहनत, लगन एवं धैर्य की सबसे अधिक आवश्यकता है। यदि आप अपने लिए यह सबकुछ दे सकते है तब आपका लक्ष्य आपसे ज्यादा दूर नहीं है। परिश्रम, लक्ष्य तक पहुँचने की प्रथम सीढ़ी है यदि आभिभावक, परिवार एवं समाज के प्रबुद्धजन इस सीढ़ी को पार करने में सहायक बनते है तो व्यक्ति अवश्य ही अपने इस लक्ष्य तक सुगमता से पहुंच पायेगा।

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