top of page
Screen Shot 2021-03-25 at 16.36.52.png
PhotoFunia-1616154540.jpg

​प्रवीण एक्का 

संपादकीय कलम से 

बारिश की एक एक बूंद मिलकर, बाढ़ बन जाती है,

एक जुट हवाओं की रफ्तार, तूफान बन जाती है ।

जन -जन की भागीदारी मिल जाये सामाजिक नेक काम में,

तो "जनसंघर्ष' की जीत आसान हो जाती है ।।

jo-bebop-CgqcPBdJZ9Y-unsplash.jpeg

मासिक पत्रिका "जनसंघर्ष" के इस नये अंक में  सम्पादकीय मंडली की ओर से आपको ज़ोरदार जोहार!

आप सभी गौर किये होंगे कि तकरीबन सभी आदिवासी बहुलक क्षेत्रों में, जीवन के अनुकूल, सुसज्जित प्राकृतिक स्थल हैं । जहां धरती उपजाऊ और धरती के नीचे खनिज सम्पदा मौजूद हैं। मतलब, हम आदिवासी खुशनसीब हैं कि, हमें संपन्नता से परिपूर्ण जगह मिली है। लेकिन कितने आदिवासी उपरोक्त बात पर बारम्बार गौर करते हैं? बारम्बार गौर करने की बात मैं इसलिये कर रहा हूँ, क्योंकि हमें अपने जगह की संपन्नता को घड़ी की टिक-टिक के साथ-साथ सदैव याद करते रहना है। हमारी भाषा- संस्कृति और रीति-रिवाज भी पूरी दुनिया के दृष्टिकोण से बेहतरीन है। जब दुनियावाले इसे बेहतर कह रहे हैं ,तो क्या हमें इसे संभालने की जिम्मेदारी नहीं है? आजकल मूल रीति रिवाज को चंद लोग ही जिम्मेदारी पूर्वक निर्वाहन कर रहे हैं। विशेष तौर पर शहरों में निवासित आदिवासी भाषा संस्कृति और रीति रिवाज का रीमिक्स बना कर रख दिये हैं, और गठबंधन(आदिवासी+अन्य) की संस्कृति में जी रहे हैं । ऐसे में आने वाली आदिवासी पीढ़ी का हश्र क्या होगा?

आदिवासी समाज को अपने भविष्य के लिये वर्तमान में ही सतर्कतापूर्वक अच्छे पहलों की अति आवश्यकता आन पड़ी है। सोचिये! धरती सम्पन्न, संस्कृति सम्पन्न, लेकिन क्या इस सम्पन्नता के बीच हम दुनियादारी में सम्पन्न हैं? अर्थात सामाजिक रूप से कहें या आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं? शायद अभी तक नहीं।

साधारणतः देखा जाय तो किसी चीज की देखरेख में अनदेखी या लापरवाही होती है, तो उस चीज को अन्य द्वारा हरण या नुकसान पहुंचता है। आज हमारी सम्पन्नता की धरती और संस्कृति का हरण हो रहा है, मतलब कहीं न कहीं हम इसे संभालने में कमी रख रहे हैं। बहुतायत में आदिवासी इस बात को लेकर महज परवाह व्यक्त कर रहे हैं ,स्वेक्षा से जिम्मेदारी पूर्वक सुधार और समाधान में आगे नहीं आ रहे। दूसरी ओर यदि आप किसी सभा में जायेंगे तो किसी न किसी वक्ता द्वारा अपने वक्तव्य में "जल ,जंगल और जमीन" की बात जरूर आयेगी। श्रोतागण भी सुनकर क्षणिक उत्साह से भर जाते हैं, फिर भाषण खत्म, जोश खत्म और फिर वही दैनिक दिनचर्या ....।

सक्षम, सम्पन्न और बुद्धिजीवी आदिवासी अगर गंभीरता से इस विषय पर आंकलन करेंगे और मार्गदर्शन करेंगे तो यकीनन, बेहतर रास्ते, हमारे समाज को मिलेंगे।

मैं आपलोगों का ध्यानाकर्षण आदिवासी भूभाग की उपजाऊ भूमि की ओर केंद्रित करना चाहता हूं। जैसा कि बारिश और सालाना खेतीबारी का समय निकटतम है, तो सभी के घरवाले खुद से अथवा साझा द्वारा खेती की तैयारियों की शुरुआत कर रहे होंगे। अधिकतर जगहों में धान की फसल होती है, फसल उपरांत 8 रुपये से लेकर 15 रुपये तक प्रति किलो धान बेचकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। जैसा कि मैं कह रहा हूँ , सुंदर और सम्पन्न भूभागों में निवासित सभी आदिवासियों को, इस बात की अहमियत उतनी नहीं है, क्योंकि हमें यह सब अपने पुर्वजों द्वारा आसानी से प्रदक्त है। सुंदर नदी, पर्वत और हरे भरे जंगलों के साथ  मिट्टियाँ भी उपजाऊ हैं ,और हम ज्यादातर सिर्फ एक खेती करते हैं । क्या एक से ज्यादा फ़सलें नहीं हो सकतीं? जरूर हो सकती हैं।

आप हम मिलकर चाहेंगे तो, विभिन्न प्रकार के फसल उगाने में आने वाले व्यावधान, जैसे सिंचाई व्यवस्था, पशुओं को चरने के लिये खुला छोड़ना आदि, अवरोध दूर हो जायेंगे और हम ज्यादा फसल उगा कर अपनी उपजाऊ जमीन द्वारा आर्थिक मजबूती हासिल कर पायेंगे। मासिक पत्रिका "जनसंघर्ष" से जुड़े रहें, सभी लेखों को पढ़ें, समझें और आदिवासी जनजागृति में अपनी सहभागिता निभायें। धन्यवाद! जोहार!!

logo.png

Contact Us

+91-9905163839

(For calls & whatsapp)

  • Facebook

Contact us on Facebook

bottom of page