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संपादकीय: कौन करेगा बेड़ा पार...

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​प्रवीण एक्का 

"घिरे हैं चौहद्दी से, कोने में सुकून लगता तो होगा,

चिंतन में फसादों के आंकड़ों का जिक्र, कभी-कभी होता तो होगा,

जल, जंगल,जमीन और संवैधानिक अधिकारों का, हो रहा खनन लगातार,

अपने हिस्से की उम्मीद और लड़ाई का रुख़, खुद से बदलना तो होगा ,

अगर ज़िद्द है बदलाव की तो.....

एक-एक को साथ आकर, सामाजिक जिम्मेदारी निभाना तो होगा...।"

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अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते ग्रामीण 

जोहार साथियों !!

"जनसंघर्ष" मासिक पत्रिका के इस अंक में संपादकीय मण्डली आप सभी पाठकों का हार्दिक अभिनंदन करते हुये स्वागत करती है।

देश, समाज और निजी जीवन में लगातार बदलते परिस्थितियों के साथ क्रमिक परिवर्तन हो रहा है। कहीं गतिशील, कहीं मध्यम तो कहीं रफ्तार धीमी है।इन तीनों परिवर्तनों में अगर आपसे पूछा जाए कि आदिवासी समाज के परिवर्तन की रफ़्तार क्या है, तो बहुमत में लोग धीमी गति को चुनेंगे। लेकिन ऐसा क्यों?

कहीं न कहीं जवाब के इर्दगिर्द आप भी हैं और सच्चाई से रूबरू भी हैं।

आप या मैं सुखद, दुःखद और सामान्य दिनचर्या में जीवन मार्ग में निरंतर बढ़ रहे हैं, लेकिन जिधर बढ़ रहे हैं, क्या वो दिशा सही है? मान लिया कि दिशा सही है तो क्या हमारी दशा सही है!! इन बातों के अलग-अलग निष्कर्ष आ सकते हैं जो कि विचारणीय है। सामाजिक दिशा और दशा का स्वरूप प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर करता है। चाहे वह आदिवासी समाज हो या अन्य समाज। आदिवासी समाज की दृष्टिकोण से देखने से यह पता चलता है कि अभी भी आदिवासी समाज की दशा और दिशा बेहतरी से कोसों दूर है। बहुत कम संख्या में ही आदिवासी लोग हैं जिनकी दिशा और दशा विकासशील समाज के अनुकूल है।

आदिवासी एकता जिन्दाबाद.....जिंदाबाद के नारेबाजी में बहुत ऊर्जा प्राप्त होती है, किंतु वाकई में जब आदिवासी एकता की बात आती है तो नकारात्मक स्वभाव जैसे ईर्ष्या, द्वेष, घृणा तेजी से सामने आ जाती है। अभी हाल में झारखंड पंचायत चुनाव-2022 सम्पन्न हुआ जिसमें आदिवासी समाज ने अपने सामाजिक सरोकार जिसमें  "निर्वाचन" नहीं  बल्कि "चयन" करने की पारंपरिक पद्धति है उसको तार-तार कर दिया। एक पंचायत से ही इतने सारे प्रत्याशियों ने नामांकन किया जैसे बेहतरीन मौका मिल गया हो।

 

हाँ, मानता हूं लोकतांत्रिक देश है और हर व्यक्ति चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिये स्वतंत्र है। लेकिन प्रत्याशियों को स्व-आंकलन करना चाहिये, कि विगत वर्षों में उनकी सामाजिक सहभागिता कितनी है, उनका योगदान कितना है और समाज के लोगों का उनके प्रति नजरिया कैसा है? आदिवासी समाज में संगत, मदईत और सामुहिक निर्णय की बेहतरीन परम्परा रही है, जिसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। कहीं न कहीं आदिवासी समाज समयानुसार सही निर्णय लेने में और ठोस रणनीति बनाने में विफल रहा है।कई जगहों पर सामाजिक बैठकें भी हुईं, विभिन्न पहलुओं पर सहमति बैठाने की भी जद्दोजहद की गईं, परन्तु प्रयास महज प्रयास तक ही सीमित रहीं। अच्छी बात यह है कि सामाजिक जागरूकता सिर्फ़ कुछ लोगों में बरक़रार है जिसे व्यापक पैमाने में फैलाने की आवश्यकता है।

एक ओर जुझारू टाना भगत सदस्यगण 5वीं अनुसूची को लागू करवाने और अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत चुनाव का बहिष्कार करने के लिये लंबे समय से धरना में बैठे हैं, वहीं  दूसरी ओर मुखिया बनने की होड़ में हमारे समाज के लोग धन, बल, साम, दाम, दंड और भेद सब कर रहे हैं, और अपने समाज के वोट काटने के लिए वोट-कटवा बने हुये हैं । राजनीति का खेल काफी पेचीदा भी है और आसान भी । यह खेलने-समझने पर निर्भर करता है। हमारे समाज के लोगों को राजनीतिक दाँव-पेंच के गुर सीखने होंगे । क्योंकि चुनाव जीतना आंकड़ों और सही रणनीति का खेल होता है, जिसमें हमारे लोग अभी भी कच्चे हैं। आदिवासी प्रत्याशियों में से हारने वालों की संख्या बड़ जाती है और अन्य प्रत्याशी विजयी हो जाता है। फिर बाद में आम जनता के पास एक ही बात होती है, कि एक ही को खड़ा होना था, तो जीत जाता/जाती। यह वाक्या अफसोसजनक भी है और हक़ीकत भी, क्योंकि यही ढर्रा चलता आ रहा है जिसमें सही विचारधारा और सामाजिकता द्वारा सुधार की आवश्यकता आन पड़ी है।

देखा जाय तो हमारे समाज में किसी भी कार्यक्रम, घटना या चुनाव रिजल्ट को लेकर ठोस पहल या फरमान जारी नहीं होता। हमलोग मूल्यांकन मीटिंग तो करते हैं, लेकिन मूल्यांकन मीटिंग के बाद निकाले गये निष्कर्षों को कार्ययोजना या जमीनी हकीकत में शामिल नहीं करते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि परिस्थितियां जस के तस बनी रहतीं हैं ।

साथियों, आदिवासी समाज की बेहतरी और उज्ज्वल भविष्य के लिये एक-एक आदिवासी सदस्य को जिम्मेदारी लेनी होगी और अपने समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिये निःस्वार्थ भाव से अपने द्वारा पहल करनी होगी। "कौन करेगा बेड़ा पार...." के सवाल में हमें मिलकर एक स्वर से जवाब देना होगा कि "हम" करेंगे आदिवासी समाज का बेड़ा पार, लेकिन पहल "मेरी" होगी।

इन्ही पंक्तियों के साथ इस अंक के संपादकीय अंश को विराम देता हूँ । आप इस अंक के अगली लेख की ओर आगे बढ़ें , पढ़ें और सामाजिक चेतना में जागरूकता लायें.......

 

धन्यवाद सह जोहार!!

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