



संपादकीय
आजादी के दो सिपाही : सही ज्ञान और अच्छा स्वास्थ्य
प्रवीण एक्का

जोहार साथियों !
"जनसंघर्ष" पत्रिका के इस अंक में सम्पादकीय मण्डली आपका हार्दिक अभिनंदन करती है। मुझे विश्वास है इस पत्रिका के लेखों, कविताओं के माध्यम से आदिवासी समाज में हम बौद्धिक चेतना और विवेक प्रदान कर नई सोच के साथ बेहतर जीवन निर्माण कर सकेंगे। आप भी अपने सामाजिक विचारों को लेख या कविताओं के माध्यम से हमें भेजें जिसे हम इस पत्रिका के माध्यम से लोगों तक पहुँचा सकें।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व पटल में निवासित आदिवासी समाज की बेशकीमती सभ्यता- संस्कृति, भाषा, इत्यादि पर ध्यानाकर्षण करते हुये इस धरा पर आदिवासी समाज को विभिन्न पैमानों में उम्दा पाया, और 09 अगस्त को विशेष दिवस के रूप में उदघोषित किया है। विगत दशक से भारत देश में भी आदिवासी समाज "विश्व आदिवासी दिवस" के रूप में इस दिन को विभिन्न प्रकार से मना रहा है।
वहीं आदिवासी समाज का एक तबका अभी भी आदिवासीयत संदर्भ में आधुनिकता से दूर दिखाई देता है। इसमें एक तो आर्थिक रूप से सम्पन्न आदिवासी हैं, और दूसरा आर्थिक रूप से बहुत कमजोर आदिवासी। अपने समाज के सम्पूर्ण विकास के लिये जो जिस प्रकार से मदद दे सकते हैं, यदि वैसा करें तो आदिवासी समाज में विकास की सम्पूर्ण क्रांति आ जायेगी। आदिवासी समाज के सम्पूर्ण विकास के लिये "एक तीर एक कमान, सभी आदिवासी एक समान" के नारे को सार्थक बनाने के लिये आदिवासी समाज के प्रत्येक व्यक्ति को बौद्धिक व आर्थिक मददगार बन अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का प्रण लेना चाहिये। जिससे आदिवासी समाज के अन्तिम व्यक्ति तक उन्नति पहुंच सके।
आज की तारीख़ में "नशापान" आदिवासी समाज के विकास की सबसे बड़ी रोधक है। दिकदिक एवं भू-माफियाओं द्वारा शराब की लत देकर न जाने कितने प्रकारों से शोषण और ज़मीनों की लूट चल रही है। जल, जंगल और जमीन को बचाने के संघर्ष में सभी आदिवासियों को अपने साथ विषयवद दो सिपाहियों की जरूरत है: पहला सही ज्ञान और दूसरा अच्छा स्वास्थ्य। इन दोनों से जनसंघर्ष भी आसान हो जाता है और बेहतर परिणाम की आकांक्षा भी बढ़ जाती है।
निम्नलिखित कुछ पंक्तियों में "जनसंघर्ष" पत्रिका के माध्यम से बौद्धिक-ललकार प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
तब आज़ादी जरूरी थी, अब पहचान जरूरी है........
जो आजाद थे गुलाम दुनिया में, उनको बंदिशों से आजादी लेना जरूरी है ।
पहचान क्या है, किससे है! बस इतना समझने की बारी है।
रहते हैं जिस जमाने में, वहाँ खुद को इत्तला करने की बारी है।
पहचान खुद की हो, परिवार की हो या अपने समाज की हो,
'जनगणना' अधिकार में लिस्ट जारी हो सके ऐसे फरमान जारी करवाने की बारी है।
संवैधानिक हिस्सेदारी हो मजबूत, 'आदिवासी/सरना" धर्म कोड लागू करवाने की बारी है।
ऐ आदिवासी! मिल रहा जिस शहर से आमदनी, आन-बान और शान,
वहां से अपने जड़ को सींचते रहने की बारी है ।
फर्ज क्या नहीं निभाओगे अपने हिस्से की बारी में,
और क्या कर्ज नहीं चुकाओगे, अपने हिस्से की जागीरदारी में,
जल, जंगल और जमीन के संघर्षों के साथ सुलझते जा रहे हैं हालात ऐसा लगता है,
लेकिन हकीकत में सामाजिक संघर्ष और अधिकार की लड़ाई बिखरी हुई है,
यही जाँच और पड़ताल से मालूम चलता है।
आदिवासी मुद्दों में एक सूत्रधार, सामंजस्यता और सही रणनीति भी बंटी हुई है,
सामाजिक दबाव की राजनीति, जनसैलाब और आंदोलन सही पथ से कहीं हटी हुई है।
मालूम हमें भी है और जनाब आपको भी, तभी तो कहता हूं चलो तैयार करो अपने दोनों
सिपासी: सही ज्ञान और अच्छे स्वास्थ्य को,
क्योंकि अब आदिवासी समाज को जीत दिलाने की बारी है।
संख्या आप से है ,भीड़ आप से है, अकेले के हौसले को नजरअंदाज न कर साथी,
जिम्मेदारी का नया अध्याय और नया अंदाज दिखाने की अब बारी है।
जो मौजूद हैं अपने लोग उनसे भेद-भाव मिटाकर समाजिकता में मिलना शुरू कर मेरे साथी,
कल की पीढ़ी गर्व महसूस कर सके ऐसा कुछ कर मेरे साथी,
लोगों को सही ज्ञान और अच्छे स्वास्थ्य की जानकारियां जब-तब देते रहें, जनजागृति में समय,
धन और बल से हरसंभव मदद करते रहें,
एक साथ आपका मिले, मेरा मिले, तो पहचान भी होगा और संघर्ष गाथा को नया आयाम भी मिलेगा,
ग्राम सभा, विधानसभा और लोकसभा के माध्यम से अब अपने हक-अधिकार को लेने की बारी है,
विचारों के तालमेल और नि:स्वार्थ भाव से "आदिवासियत" को केंद्रित कर उन्नत समाज निर्माण में लगने की बारी है।
आजादी के दोनों सिपासी: सही ज्ञान और अच्छे स्वास्थ्य को साथ लेकर आदिवासी समाज को जीत दिलाने की बारी है।
धन्यवाद ।
"जोहार" "जय आदिवासी"