


संपादकीय: जन जागरुकता की पहल

प्रवीण एक्का
चिंगारी उठी है बदलाव की, तो यकीनन मशाल जलेगा!
सच्चाई व हकीक़त को रौंदने वालों का हाल-बेहाल होगा!!
होती है देरी कभी-कभी मैदाने जंग में,
डटकर लड़ेंगे हम, डटकर टिकेंगे हम,
माटी बचाने की खातिर,
आंदोलन की चिंगारी बनकर यक़ीनन मशाल जलायेंगे हम !!

यूक्रेन ध्वज। PC: https://wallpapercave.com/ukraine-flag-wallpapers
जोहार साथियों!
"जनसंघर्ष" मासिक पत्रिका के फरवरी माह के इस अंक में संपादकीय मण्डली की ओर से आपका हार्दिक अभिनंदन करते हैं।
"जान देंगे, जमीन नहीं देंगे" यह नारा कहीं न कहीं यूक्रेन वासीयों के दिल दिमाग में घूम रहा होगा। जब जल,जंगल और जमीन की बात आये तो ऐसे नारा का आना स्वाभाविक है। घूम फिर कर जमीन ही एक ऐसा मुद्दा है जिस पर एक पक्ष संरक्षा करता है तो दूसरा पक्ष उसे कब्जा करने की कोशिश। हक, अधिकार और स्थानीयता जमीन से जुड़ी हुई इकाइयां हैं। जो समाज या व्यक्ति अपने जमीन की रक्षा करता है वह अपने अस्तित्व को साबित करता है। कभी-कभी हालात पक्षधर नहीं होते तो जमीन की विक्रय राशि आपातकालीन धन के समान हमारी आवश्यकता को पूर्ण करती है। हालांकि, कुछ नासमझ भौतिकवादी वस्तुओं के क्रय में अपनी बेशक़ीमती जमीन का नीलामी कर देते हैं।
ध्यान रहे! हम आदिवासियों के लिये जमीन एक वरदान है, हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। इसकी सुरक्षा करना हमारा परम धर्म है।
अब जब जमीन और अस्तित्व की बात आई तो अभी ताजा खबरों में आप यूक्रेन-रूस की लड़ाई की खबर को देख सुन रहे होंगे । शुरुआती परिदृश्य में यह देखा गया कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेन्सकी जो कि "Servant of the People" नामक पार्टी से हैं ,वे अपने पार्टी के नाम अनुसार विषम परिस्थितियों में डटकर खड़े रहे। उन्होंने कहा कि वे अंतिम साँस तक मुकाबला करेंगे, उनकी इन बातों से पूरे यूक्रेन देशवासियों का मनोबल बढ़ा है। रूस शक्तिशाली देश है, उसके पास जमीन की कमी नही है, लेकिन जमीन के साथ -साथ अपने प्रभुत्व को प्रबल बनाने की होड़ में वह रशियन लोगों पर, जोकि यूक्रेन में बहुतायत में है, आक्रमण कर रहा है। चूंकि अभी का समय पूर्वकालीन समय से विपरीत है, अतः लड़ाई के तरीके और लोगों के विरोध प्रदर्शन बदल गए हैं। रूस के लोग अपने ही सरकार से अपील कर रहे हैं कि युद्ध को रोका जाये। लड़ाई परिवार की हो या देश की ,दोनों ही बातों में नुकसान के अलावा अन्य कुछ हासिल नहीं होता।
दुनिया वाले चाहें तो इस सुंदर धरती में अमन चैन से जीवन व्यतीत कर सकते हैं, लेकिन विभिन्न विचारों के लोग जब अपने-अपने फायदे को लालचता से कब्जा करने व जबरन अधिकार स्थापित करने की कोशिश करते हैं तो विवाद का होना स्वाभाविक है। पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच एक वैचारिक लड़ाई रही है, या यूं कहें कि इन्हीं विचारधारा के तकरार का नतीजा भी युद्ध रहा है, जोकि विभिन्न कालों में अलग प्रकार से घटित हुआ है।
"शीत युद्ध", द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कि अवधि को संदर्भित करता है, जब सोवियत संघ और पश्चिमी देश एक दूसरे के खिलाप गठबंधन कर रहे थे। शीत युद्ध के पश्चात पूंजीवाद का बोलबाला उभर कर सामने आया। पूंजीवाद एक आर्थिक पद्धति है, जिसमे पूंजी के निजी स्वामित्व, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत नियन्त्रण और स्वतंत्र औद्योगिक एकाधिकार की बात आती है, जो देश, काल और नैतिक मूल्यों के अनुसार बदलती रहती है।
तत्कालीन समय में औद्योगिक पूँजीवाद का प्रभाव व्यापकता से बढ़ रहा है, जोकि जल, जंगल और जमीन के अतिक्रमण और कब्जा(चाहे सरकारी हो या गैरसरकारी/कानूनी हो या ग़ैरकानूनी) का कारक बना हुआ है।
अब बात "साम्यवाद" की, तो साम्यवाद सामाजिक, राजनीतिक के गठजोड़ के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा है जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक, वर्गविहीन समाज की स्थापना करने का सिद्धान्त है। यह सबका साथ-सबका विकास वाले टैग लाइन पर आधारित है।
खैर! आदिवासी समाज की दृष्टिकोण से देखा जाय तो हमारा साम्यवादी समाज 'पूंजीवाद' तंत्र से प्रभावित है, जिसमें आदिवासी बहुल क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है। शहर हो या गाँव हम अपनी जमीन बचाने के संघर्ष में जूझ रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। बहुतायत में मुद्दे जमीन से जुड़े हैं, इसलिये कार्ययोजना के तहत मैं एक अपील करता हूँ कि आप अपने-अपने गाँव में समूह बनाकर अपनी जमीन और सार्वजनिक जमीन के कागजों/पट्टों को सशक्त बनायें।
साथियों , जागरूक होकर और सही ज्ञान लेकर, निःस्वार्थ तरीके से जन-जन तक सही ज्ञान पहुंचायें और लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करें। जल, जंगल और जमीन के रक्षक बनकर हम घर-गाँव के साथ-साथ राज्य व देश को सशक्त बनाने में अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं। धन्यवाद !
जोहार!