


वन विभाग काटेगा 15064 पेड़!

रिचर्ड टोप्पो
मौसम परिवर्तन की मार से न केवल झारखंड या भारत त्रस्त है, अपितु सारा संसार इसकी चपेट में है। वर्ष दर वर्ष गर्मी की भीषण ताप बढ़ती जा रही है। हर साल, तापमान के कई रिकॉर्ड टूट रहे हैं। बारिश की अनियमतता से तो सभी भली भाँति परिचित हैं। बात करें झारखंड की तो जहाँ अधिकांस किसान मौसम पर निर्भर रहते हैं, ऐसे में बारिश का कम या ज़्यादा होना काइयों की आर्थिक कमर तोड़ कर रख देता है। वैज्ञानिक पद्धति से देखा जाय तो इस परिवर्तन के कई मानव-निर्मित कारण सामने आए हैं, जिसमें एक मूल कारण पेड़ों तथा जंगलों का पातन है। इस संदर्भ में राज्य एवं केंद्र सरकार, दोनो की ज़िम्मेदारी बनती है कि इस पातन पर रोक लगाया जाय। अगर ज़मीनी स्तर पर सरकारी तंत्र की बात कि जाय, तो यह ज़िम्मेदारी वन विभाग की है (वन अधिकार क़ानून २००६ के बाद ये ज़िम्मेदारी मुख्यतः वन क्षेत्रों में बसे ग्रामीणों की भी है)। वन क्षेत्र में रह रहे किसी भी परिवार इस बात की गवाही दे सकते है की अगर किसी वन अधिकारी ने उन्हें वन से कुछ लकड़ियाँ लाते देख लिया (चूल्हा जलाने हेतु) तो उनपर शामत आ जाएगी।
इन जिम्मेदारियों के विपरीत, वर्ष 2022 में वन विभाग द्वारा झारखंड सरकार को दिए गए एक स्पष्टीकरण में यह बात सामने निकल कर आती है की वन विभाग लातेहार ज़िला के लाई और पैलापत्थल गाँव के 15064 पेड़ों को काटना चाहता है।

वन विभाग का वह पत्र जिसमें 15064 पेड़ों के पातन का ज़िक्र है
पर ऐसा क्या हो गया कि जिस वन विभाग का काम पेड़ों को बचाना है, वह स्वयं 15064 पेड़ काटने पर आमादा है?
इसकी वजह जानने के लिए आवश्यक है यह जानना की वन विभाग के दायरे क्या हैं, उनका उद्देश्य क्या है, और उनकी मंशा क्या है? वन विभाग का काम न केवल वनों एवं पेड़ों का संरक्षण करना है बल्कि वन्यजीवों तथा पर्यावरण को भी बचाना है। इस संदर्भ में, वन्यजीवों (ख़ासकर बाघ) को बचाने हेतु, वन मंत्रालय ने (70 के दशक से) भारत के कई हिस्सों में विभिन्न परियोजनाएँ शुरू की। ऐसी ही एक परियोजना (झारखंड राज्य में) है – पलामू व्याघ्र परियोजना। इसके तहत, वन विभाग ने एक बड़े भूखंड को बाघों के संरक्षण के लिए चिन्हित किया, और इस चिन्हित छेत्र को कोर एवं बफर एरिया में विभाजित किया।
वन विभाग की हमेशा से ये मंशा रही है की कोर एरिया को आबादी मुक्त रखा जाय। शुरूवाती वर्षों में पलामू व्याघ्र परियोजना के कोर एरिया में केवल लाटू, कुजरूम एवं रमनदाग गाँव आते थे। कुछ वर्ष पहले, पाँच अन्य गाँव (विजयपुर, पंडरा, गुटवा, गोपखार, हेनार) को कोर एरिया में शामिल कर दिया गया। वर्तमान में, वन विभाग इन 8 गावों को विस्थापित एवं पुनर्वास कराना चाहता है।
अनेक विफल प्रयासों के बाद, वन विभाग राज्य सरकार के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत करता है, जिसके तहत ‘लाटू, कुजरूम एवं अन्य गाँव’ को लाई एवं पैलापत्थल गाँव में पुनर्वास कराना है। लाई एवं पैलापत्थल, दोनो गाँव रिसर्व फ़ॉरेस्ट क्षेत्र में आते हैं, और यह पूरा इलाक़ा ईको-सेन्सिटिव ज़ोन का हिस्सा है। ‘लाटू, कुजरूम एवं अन्य गाँव’ के पुनर्वास के लिए वन विभाग ने लाई और पैलापत्थल में कुल 410.18 एकड़ भूमि उपलब्ध ‘कराई’ है। इस उपलब्ध भूमि में पेड़ों की कुल संख्या 52876 है, जिनमें सखुआ एवं महुआ के पेड़ मुख्यतः शामिल हैं। वन विभाग के औपचारिक आवेदन में कुल 15064 पेड़ों के पातन का प्रस्ताव है।

लाई-पैलापत्थल के जंगल जिसे काटने का प्रस्ताव वन विभाग ने भेजा है
तो क्या है इन 15064 पेड़ों की कीमत? रुपयों में तौलना तो नहीं आता, पर हाँ, अपने भविष्य, अपने भावी पीढ़ी और अपनी प्रकृति को हम निसंदेह दावँ पर लगा रहे हैं। सवाल यहाँ यह नहीं है कि क्या वन विभाग ऐसा कर सकता है, क्योंकि न्यायिक दृष्टि से वन विभाग (राज्य एवं केंद्र की अनुमति के उपरोपरांत) ऐसा बिलकुल कर सकता है। वरन सवाल यह है की क्या वन विभाग को ऐसा करना चाहिए, और क्या आप और मैं इस बाबत कुछ कर सकते हैं?
सवाल यह भी उठता है कि क्या वन विभाग ने अपने एक उद्देश्य (वन्यजीवों) को पूरा करने हेतु अपने प्रमुख उद्देश्य (वन एवं पेड़ों का संरक्षण) को त्याग दिया है? और इन उद्देश्यों की पूर्ति में आदिवासियों के अधिकार को कैसे दरकीनार कर दिया गया है?
वर्ष 2006 में जब वन अधिकार क़ानून पारित किया गया तो उसका लक्ष्य केवल वन क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों को उनका अधिकार दिलाना नहीं था, बल्कि एक सोच को भी प्रोत्साहित करना था – कि वन क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों का जीवन प्रकृति एवं वन से जुड़ा हुआ है। प्रकृति के संतुलन एवं वनों के संरक्षण के लिए आदिवासियों का रहना ज़रूरी है। आसान शब्दों में कहा जाय तो – आदिवासी है तो वन है। वन्यजीवों के संदर्भ में इसका विस्तार किया जाय तो – वन है तो वन्यजीव हैं। इन तीनों का अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। पर ये वन विभाग की क़ाबिलियत है कि उन्होंने वन्यजीवों के विपरीत वनों को खड़ा कर दिया, और वे स्वयं पेड़ों के पातन की ओर अग्रसर हैं। इसमें नुक़सान महज़ आदिवासियों का ही नहीं, बल्कि पूरे प्रकृति, पूरी आबादी का है।
मैं आपके समक्ष दो तर्क रखूँगा कि क्यों वन विभाग को ऐसा नहीं करना चाहिए। पहला, इन पेड़ों का पातन एक सिलसिला है जो चला आ रहा है, और अगर रोका नहीं गया तो चलता रहेगा। अगर आप वन विभाग के आपसी पत्रचार के तर्कों को पढ़ें (तस्वीरें संलग्न हैं) तो कुछ यूँ प्रतीत होता है कि – पहले भी विकास कार्यों के लिए पेड़ों को काटा जाता रहा है, अतः अब इसमें रोक लगाने का कोई तर्क नहीं है।

वन विभाग के आपसी पत्राचार का एक अंश
दूसरा, इस सिलसिले में कोई नहीं छूटेगा, सभी प्रभावित होंगे, सभी जोड़े जाएँगे। अगर आप वन विभाग के 2-3 वर्ष पूर्व के विस्थापन-पुनर्वास प्रस्ताव को देखेंगे तो पाएँगे कि लाई और पैलापत्थल के अलावा (लाटू और कुजरूम के) विस्थापितों को पोलपोल गाँव में भी बसाने का इरादा था। किन्हीं कारणों से ये प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया। अब 2021 में वन विभाग द्वारा एक और आवेदन दिया जाता है जिसमें पलामू व्याघ्र परियोजना स्थित पोलपोल सहित 5 अन्य गाँव (तनवई, नवरनागो, चपिया एवं टोटकि) को विस्थापित एवं पुनर्वास (गढ़वा वन क्षेत्र में) कराने का प्रस्ताव है।
