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कुंड़खर ही महबा आलो

“छिड्डा”

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​कीर्ति मिंज 

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PC: Barbara Rosner

पुरखर तंगआ उज्जनन दावले उज्जियर

गड्डी डिप्पा खल्ल टोंकन उस्सर

जिनगी खेपआगे मने किसिम घी बिहनी –

गुड़लु, कोदय, ख़ेस्स, जिन्होर, मांसी चांख़र

पुरखर गही सोहदा अमखी मांसी दाली

इन्ना सौंसे राजीनू, एड़पा नू नाली

खांसी – जुड़ो गही ठौकम मांदर बिरो तली

आंवगेम उर्मी ख़ोड़ हाता आलर एम्बा सारनर

मांसी दालीन छिड्डा कमनर

बेंज्जा – पाही, कंक – अतख़ा नू महबा खक्खनर

मड़वा उल्ला गा इदीनिम एम्बा सारनर

छिड्डा मंड्डी बिरखीर -बिरखीर ओन्नर

इन्ना ता बेड़ा नू छिड्डा गही महबा –

अड़खा छिरका, ढूसका, इडली

पिठा, कचरी,चिप्स, बरी नूम ईथरई

पहें बासी मंड्डी संग्गे भूरटाचका छिड्डा बेजोड़ एम्बा

छिड्डन जुदा नामे ती अख़नर

कुंड़ख़र – छिड्डा मंड्डी, मुन्डर – रमड़ा बाड़ी

खड़ियार – बरईझोर, संथालीर – रमड़ा दल बरी बअनर

कुंड़ख़र गही महबा एम्बा अमख़ी

पइरी – पुतबीरी छिड्डा कंज्जी

अज्जी नत्तीर ही गा जिया पुलख़ी

बेक्खा नख़रनुम सिर्र-बोर्र ओन्नर

एख़ एरा – एरा छिड्डा कमनर

उल्ला खेपआगे पोटोंग मुसुगनर

ओत्था – नेब्बा नलख़ नू मूलूख़का बीरी

मानिम छिड्डा अमख़ी दिम सुपट एम्बा लग्गी।

कविता का हिंदी अनुवाद:

उराँव आदिवासियों का पसंदीदा चीज़

“बरी”

हमारे पूर्वजों ने अपना ज़िन्दगी प्यार और ख़ूबसूरती से जिया

ऊबड़-खबड़ भूमि को जोत-कोड़कर सुंदर खेत बनाया

जीविकोपार्जन के लिए अनेक प्रकार के बीज जैसे-

गोंदली, मड़ुवा, धान, मकई, बादाम, उरद बोया।

 

पूर्वजों का मुख्य मनपसंद सब्ज़ी उरद दाल

जो पूरे देश में, पूरे घर में आज भी पकता है

सर्दी-ज़ुकाम होने पर यह रामबाण का काम करता

इसलिए सभी समाज के लोग उरद दाल पसंद करते

 

उरद दाल से ही बरी बनाया जाता

शादी-ब्याह अवसरों पर ख़ूब काम आता

मड़वा के दिन तो विशेष रूप से बरी झोर बनता है

इसलिए पतरी-भात बरी झोर ख़ूब परोसा जाता।

 

वर्तमान समय में उरद दाल के अनेक रूप

इनकी उपयोगिता है, इनमें – साग, सब्ज़ी,

छिलका रोटी में, दूसका में, इडली में, पीठा रोटी में,

कचरी में, चिप्स, पापड़ में, बर्रा में, लेकिन

आग अंगार में बरी को (भुरटा) पकाया स्वाद –

तेल, नामक, मिर्च, टमाटर के साथ चोखा और

बासी भात का आनंद शायद ही नसीब होता

 

बरी को अलग-अलग समुदाय में जाना जाता –

उराँव – छिड्डा, मुंडा – रमड़ा बरी, खड़िया – बरईझोर, संथली -रमड़ा दाल बरी

उराँवों का सस्ता एवं टिकाऊदार सब्ज़ी

सुबह हो या शाम बरी झोर से काम चल जाता

दादी-पोती तो बरी झोर देख ख़ुश हो जाते और सरपट स्वाद लेकर ख़ूब खाते।

 

बरी बनाते, ख़ूब निहारते यह भी है एक कला

दीर्घ अवधि तक प्रयोग हेतु आदिवासी समाज में

पत्तों की पोटली बनाकर बरी को सुरक्षित रखा जाता

जाड़ा हो, बरसात हो, काम के बोझ में

जल्दी से तैयार होने वाला सब्ज़ी बरी झोर

सभी खाते, ख़ूब पसंद करते और यही कहते हैं – वाह!

बहुत मज़ा आया, मन भर गया।  

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