


लड़ाई अब भी जारी है

जेरोम जेराल्ड कुजूर
बिहार सरकार ने वर्ष 1999 में असाधारण अंक एम०ओ० संख्या 1005/2-11/1999 (बिहार गजट) के द्वारा अधिसूचना जारी की, जिसके तहत 11 मई 2002 से 11 मई 2022 तक सेना को यह अधिकार दिया गया कि वह नेतरहाट फ़ील्ड फायरिंग रेंज के इलाक़े में तोप अभ्यास कर सकते हैं। जन संघर्ष समिति के नेतृत्व में जनता द्वारा किए गए अहिंसात्मक सत्याग्रह के कारण 1994 से अब तक सेना तोप अभ्यास नहीं कर पायी है।
जैसा कि आप सभी को ज्ञात है कि 1956 में तत्कालीन बिहार सरकार ने मैनुवर्स फ़ील्ड फ़ाइअरिंग एंड आर्टिलरी प्रैक्टिस एक्ट 1938 की धारा 9 के अंतर्गत अधिसूचना जारी किया, जिसके तहत सेना ने नेतरहाट के पठार क्षेत्र में स्थित 7 गाँवो में 1964 से लेकर 1994 तक प्रति वर्ष तोपाभ्यास किया। उक्त अधिसूचना के समाप्त होने के पूर्व, 1991 एवं 1992 में, तत्कालीन बिहार सरकार ने अधिसूचना जारी करते हुआ ना केवल तोपाभ्यास की अवधि का विस्तार किया, पर अधिसूचित क्षेत्रों को भी बढ़ाया। इस अधिसूचना के अंतर्गत 1471 वर्ग किलोमीटर को चिन्हित किया गया, जिसमें कुल 245 गाँव आते हैं; फलस्वरूप, 2,50,000 लोग, जिसमें 90 से 95% लोग आदिवासी होते, पर विस्थापन का ख़तरा मंडराने लगा। इस अधिसूचना ने तोपाभ्यास की समय अवधि 1992 से 2002 तक कर दी। सेना के आला अधिकारी, ब्रिगेडियर आई०जे० कुमार, के प्रेस को दी गयी सूचना के अनुसार, 188 वर्ग किलोमीटर का संघात क्षेत्र, नेत्रहाट एवं आदर में 9-9 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सैनिक शिविर और 206 वर्ग किलोमीटर की भूमि अर्जन करने की जानकारी सामने आयी। उसी पत्र में इस बात का उल्लेख था कि सेना को फायरिंग रेंज के लिए 3500 वर्ग किलोमीटर की आवश्यकता है।
पी०यू०डी०र की 1994 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार नेतरहाट फ़ील्ड फ़ाइअरिंग रेंज सेना द्वारा देश भर में चलाए जा रहे 4 पाइलट फायरिंग रेंज परियोजना का हिस्सा था, जिसमें मध्य प्रदेश का रेवा, आंध्रा प्रदेश का शमीरपेट और राजस्थान का कोलायत शामिल थे। इस पाइलट प्रोजेक्ट के तहत (सेना के लिए) स्थायी विस्थापन एवं भूमि-अर्जन की योजनाओं को आधार दिया जाता।
केन्द्रीय जन संघर्ष समिति के अहवाहन पर प्रभावित क्षेत्र के लोगों ने 22-23 मार्च 1994 को अथक जनंदोलन द्वारा सेना को तोपाभ्यास करने से रोका, तथा उन्हें वापस जाने पर मजबूर किया। तब से लेकर, हर साल 22-23 मार्च को समिति के अहवाहन पर हम सभी सत्याग्रह एवं संकल्प दिवस मनाते आ रहे हैं।
जनता के विरोध के कारण आज पायलट प्रोजेक्ट नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज की फ़ाइल् ठंढे बस्ते में है। विस्थापन की यह फ़ाइल् कब और किस करवट लेगी कहा नहीं जा सकता।
अभी हमने नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के विस्थापन से निजात भी नहीं पाया था कि एक और विस्थापन की भयावह मुँह बाये खड़ी है। पलामू व्याघ्र परियोजना के कोर एरिया में स्थित 8 गाँव - लाटू, कुजरुम, हेनार, विजयपुर, पंडारा, गुटवा, गोपखाड सभी गारू प्रखण्ड व बारवाडीह प्रखण्ड के रामंदाग - को विस्थापित कर अन्यत्र बसाने की घोषणा वन विभाग द्वारा 2017 को की गयी। इसी क्रम में कुजरुम व लाटू गाँव को लाई व पाइलापत्थर गाँव के वन भूमि, जिसे संरक्षित वन कहा जाता है (जो 321 एकड़ में फैला है), में बसाने के लिए विभाग द्वारा प्रस्ताव बनाया गया है। 21 फरवरी 2021 को अख़बार में छपी खबर के अनुसार लाटू व् कुजरुम गाँव को विभाग द्वारा पोलपोल ( डाल्टनगंज – राँची मार्ग ) में बसाने की बात कही गई है, जहाँ गाँव के लोग बसना नहीं चाहते क्योकि वहाँ की जमीन पथरीली है।
(आभार : बीजू टोप्पो)
आगे में और भी बात कहूँ इस से पहले में मैं संरक्षित वन के बारे में आप से चर्चा कर लूँ. ज्यादातर संरक्षित वन गाँव के सीमा के अंदर का वह हिस्सा या वन भूमि का वह हिस्सा है जहाँ से गाँव के लोग अपने घरेलू उपयोग के लिए निस्तार के अधिकार का प्रयोग कर जलावन लकड़ी, लघु वन उपज , चारागाह, व अन्य उपयोग के लिए प्रयोग में लाते हैं। वन अधिकार कानून 2006 के तहत इसे वन पर ग्राम सभा के मार्फत गाँव के लोग सामुदायिक पट्टा का दावा कर सकते हैं। जैसा की आप सभी जानते हैं कि ग्राम सभा के निर्णय को संशोधित करने, कम करने या न देने की बात करने का अधिकार वन पट्टा देने वाली किसी भी स्तर की कमिटी को नहीं है।
अब हम बात करते हैं कुजरुम व लाटू गाँव की, इन दोनों गाँव को पलामू व्याघ्र परियोजना ने वन ग्राम घोषित किया है। गाँव वालों की माने तो वे 1918 से इन गाँव में निवास करते आ रहे हैं। तो निश्चय ही पलामू के प्रथम सर्वे सेटलमेंट में इन गाँवों का सर्वे भी हुआ होगा और उन्हें खतियान भी मिला होगा। परन्तु आज उनके पास उनकी जमीन का कोई कागज नहीं है। हाँ, वनाधिकार कानून 2006 के तहत उन्हें अब वन पट्टा जरुर मिला है। गाँव वालों के दावे के अनुसार कई वर्षों पूर्व वन विभाग द्वारा वन ग्राम बनाये जाने के बाद उनका खतियान माननीय वन विभाग द्वारा ले लिया गया। कागज के बिना तो आप झूठे साबित होंगे। इस पर जवाब देते हुए गाँव के बुजुर्ग ने बताया की झारखण्ड के प्रथम मुख्यमंत्री माननीय श्री बाबूलाल मरांडी जब देश के वन एवं पर्यावरण मंत्री थे तब गाँव के लोग माननीय मंत्री से मिलने व अपनी फरियाद लेकर लोहरदग्गा निवासी भा.ज.पा के नेता लेवनाट भगत के नेतृत्व में उनके पास गए थे। उस समय पूर्वी कुजरुम व पश्चिम लाटू का कागज माननीय मंत्रालय में मिला था। परन्तु गाँव निवासियों के पास यह काग़ज़ात उपलब्ध नहीं है। वन ग्राम में होने के कारण इन गाँव में निवास करने वालों का न तो जाति प्रमाण पत्र, ना आय प्रमाण पत्र और ना ही स्थानीय प्रमाण पत्र बन रहा है जो इन गांवों की सबसे बड़ी समस्या है। इन्हें जो वन पट्टा मिला है उसके आधार पर भी इन्हें इसका लाभ नहीं मिल रहा जबकि वन पट्टा में साफ़ तौर से इन्हें अनुसूचित जन जाति (उराँव/ मुंडा/ व बिरजिया) स्वीकार किया गया है।
विभाग ये दावा कर रही है की जहाँ इन्हें बसाया जायगा उन्हें खतियानी जमीन उपलब्ध कराई जायगी, जिससे इनकी ये समस्या दूर हो जायगी। पर हम सभी जानते हैं कि झारखण्ड में आज सभी प्रमाण पत्र ऑन लाइन बनते हैं, जिसके लिए 1932 का खतियान माँगा जाता है। हाँ इतना तो तय है की इन्हें अन्यत्र बसाने के बाद सरकार के तरफ से पुनर्वासित होने का प्रमाण पत्र जरुर मिलेगा। परन्तु इनकी मूल समस्या जो कि इनके अनुसूचित जन जाति/ आदिवासी होने तथा स्थानीय होने पर प्रश्न चिन्ह तो तब भी कायम ही रहेगा।
अब हम लाई व् पाइलापत्थर गाँव की बात करते हैं। जहाँ के संरक्षित वन पर कुजरुम व् लातु गाँव को बसाने का दावा माननीय विभाग द्वारा किया जा रहा है। सच्चाई ये है कि ये जगह अभी भी प्रस्तावित है क्योकि इस स्थान का अनापत्ति प्रमाण पत्र विभाग को नहीं मिला है। चलिए मान लिया जाय कि माननीय विभाग को ये प्रमाण पत्र भी मिल जाए तब की स्थिति में क्या होगा? लाई व पाइलापत्थर गाँव के निस्तार के अधिकार जिसका जिक्र मैने ऊपर किया है उसका हनन होगा। एक को अधिकार देने के लिए दूसरे का अधिकार छिनना कहाँ तक न्याय संगत है, यह विचार करने की आवश्यकता है। अगर विभाग उन्हें उस स्थान में बसा भी लेती है तब लाई व् पाइलापत्थर और कुजरुम व लाटू गाँव के बीच निस्तार के सवाल पर आपसी संघर्ष होगा. ये संघर्ष किस मोड़ लेगी। सवाल तो बनता ही है।
