top of page
Screen Shot 2021-03-25 at 16.36.52.png
PhotoFunia-1627558717.jpg

मूल बन रहे प्रवासी 

प्रियंका ख़ेस 

पिछले कई वर्षों में अपने देखा होगा किस प्रकार गांव की आबादी धीरे धीरे घटती जा रही है। जो गांव कभी भरा पूरा हुआ करता था, आज वह सुनसान पड़ा है। गांव का वह चबूतरा जहां हमेशा बच्चे, बूढ़े, नौजवानों की महफिलें सजती थी, आज उजाड़ पड़ी है। अब दो चार गांव की वृद्धा ही हैं जो उस पर पड़ी रहती हैं। शायद वे भी इस बाग के उजड़ने का शोक मनाती होंगी। मेरे पिताजी भी अक्सर इसी बात का शोक मनाया करते। वो बताते हैं की पहले गांव में कितनी रौनक हुआ करती थी। प्रत्येक घरों में ७-८ लोग तो होते ही थे। और त्योहारों के समय का तो कहना ही क्या, उस समय तो एक मेला सा लग जाता। हर रोज कोई ना कोई सवारी आती अपने साथ किसी प्रवासी को लिए हुए। पर आज ना तो सवारी है ना ही प्रवासी। अब तो जो बचे खुचे लोग थे वे भी शहरों की ओर अग्रसर होने लगे हैं।

andrew-ridley-4dPHQviRbWo-unsplash.jpeg

आखिर यह भारी विस्थापन का कारण क्या है?

 

आज हम जिस युग में जी रहे हैं यह आधुनिक युग है, जो विभिन्न प्रकार के आधुनिक तकनीकों से लैश है जिसका बीजारोपण शहरों में ही हुआ है। कुछ ज्ञानी पुरुष कह गए हैं की "व्यक्ति को समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहिए"। इसी उक्ति को सार्थकता प्रदान करने गांव से लोग शहराभिमूख होने लगे। शहरों की इस चका चौंध में गांव के दीए कहीं लुप्त से हो गए। कारखानों गाड़ी मोटरों की धुंए में गांव की यादें धुंधला गईं। धीरे धीरे लोग इस पराए शहर को अपना मान बैठे, और अपने गांव कस्बे को पराया कर दिया। गांव में एकड़ एकड़ भूमि को छोड़ बीघे भर जमीन के लिए दर दर भटकने लगे। शहरों में बसने के लिए वे हर कीमत चुकाने को तयार हो गए।

 

ऐसे ही हमारे परिचित हैं जो रोजगार की तलाश में झारखंड सिमडेगा जिले के एक छोटे से गांव से राउरकेला आए। तब यह शहर विकसित हो ही रहा था। कहते हैं उस वक्त नौकरी की इतनी मारा मारी ना थी। थोड़ा प्रयास करने पर कोई ना कोई छोटी मोटी नौकरी मिल ही जाया करती थी। सौभाग्य से इन्हे भी एक स्कूल में पियोन की नौकरी मिल गई। स्कूल की ओर से उन्हें रहने के लिए एक छोटा सा घर भी मिल गया। बस और क्या चाहिए था, नौकरी, शहर में घर, जीवन बड़े ही आराम से कटने लगा। बच्चों की पढ़ाई लिखाई भी यहीं हो गई। पर अब रिटायरमेंट का समय नजदीक आने लगा था और उन्हें घर की चिंता सताने लगी। क्योंकि वे गांव तो पहले ही छोड़ चुके थे। अब उनके पास शहर में जमीन खरीदने के अलावा और कोई उपाय ना था। इधर शहर जैसे जैसे विकसित हो रही थी जमीन के भाव आसमान छूने लग रहे थे। अब तो लोग अनाबादी जमीन तक लाख लाख रुपए दे कर खरीदने लगे थे। उन्होंने भी सोचा की ऐसी ही कोई जमीन मिल जाए तो सस्ते में शहर में अपना भी एक मकान बन जाए। खोज बिन करते करते उन्हें ऐसी एक जमीन मिल गई। कुछ १०-११ डिसमिल रही होगी। उन्होंने करीब ढाई लाख रुपए में इसे खरीद लिया। पर अफसोस कुछ दिनों बाद ही पता चला की उस जमीन पर किसी और का भी दखल है। अब वे पैसे और जमीन दोनों से ही हाथ धो बैठे। ऐसे ठगबाजी ना जाने कितनों के साथ हुई होगी। पर लोग धोखा खाने पर भी इस शहर को छोड़ने को तयार नहीं। शहरों में रहने में ही वे खुद को कृतार्थ समझने लगे हैं। ना जाने इन शहरों में ऐसी कौनसी बात होती है जो बनावटी होने पर भी बड़ी ही आकर्षक लगती है।

 

मैंने कई लोगों के बच्चों को यह कहते सुना है की वे कभी गांव गए ही नहीं। और जो भी गए वे उसे कभी अपना माने ही नहीं। बस अतिथि बन कर गए और आए। उन्हें तो ये तक नहीं मालूम की उनकी जमीनें कितनी हैं। कौन कौन सी उनकी जमीनें हैं। पट्टा कैसे देखी जाती है मालगुजारी, घरबारी कैसे दी जाती है। वे तो शहरों में कुछ square feet पर बने घर को ही अपनी जायदाद समझ बैठे हैं।

 

जब चुनाव का मौसम आता है तो लोग शहरों में ही अपना वॉट डालते। क्योंकि उनका पहचान पत्र गांव का है ही नहीं। सिर्फ वॉटर कार्ड ही नहीं, आधार, DL, PAN  सभी पर तो हमारे शहर का ही ठिकाना है। गांव की भूमि तो बस जाति प्रमाण पत्र प्राप्ति का साधन मात्र  रह गया है। अगर आरक्षण हटा ली जाए तो शायद ये भी ना बचें।

 

शहरों में प्रवासित आदिवासी परिवार मूल परम्परा और रीति रिवाज से दूर होते दिखाई पड़ रहे हैं। जन्म, शादी और मृत्यु के विधि-विधान में स्वयं द्वारा  संसोधन कर नियम विपरीत, संस्कृति व संस्कार का दोहन कर रहे हैं। जो आदिवासी समाज के बहुयामी अस्तित्व के भविष्य के अनुकूल नहीं है।

 

आज हम खुद को मूलनिवासी कहते हैं। क्या वास्तव में हम अपने मूल से जुड़े हुए हैं? क्या हम इस नई पीढ़ी को मूल से जोड़ पाए हैं? हम निश्चित तौर पर चाहते है की हमारे बच्चों का भविष्य उज्वलमय हो, और इन्ही कारणों से हम शहर की ओर अग्रसर हुए, जिससे उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सके। पर इन शहरों के प्रति गहरी आकर्षण कहीं उनसे उनकी पहचान तो नही छीन रही। वर्षों पहले इस भूमि पर जो बीज हमारे बाप दादों ने लगाया,उसे आज एक विशाल वृक्ष होना था। पर इस से पहले ही हमने इसकी टहनियां काट ली। पहले एक फिर दो, ऐसे धीरे धीरे सारी टहनी कट गई। अब बस ढूंढ मात्र ही रह गया है, जिसे की सींचने वाला कोई नहीं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब यह ढूंढ जाड़े की अंगीठी में स्वाहा हो जायेगी या दीमक इसे मिट्टी में मिला ले जाएंगी। फिर हम मूल नहीं प्रवासी बन कर रह जाएंगे।

logo.png

Contact Us

+91-9905163839

(For calls & whatsapp)

  • Facebook

Contact us on Facebook

bottom of page