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मुण्डा खूँटों की भूमि - खूँटी

झारखण्ड की राजधानी राँची के दक्षिण की ओर 40 कि. मि. की दूरी पर खूँटी जिला स्थित है। जिसे 12 सितम्बर 2007 को राँची जिला से अलग कर दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडल का 23 वाँ नया जिला बनाया गया। खूँटी झारखण्ड के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस जिले में प्राचीन काल से मुण्डा जनजातियों का प्रभुत्व रहा है जिनका लम्बे समय तक जमींदारों, सेठ-साहुकारों और अंग्रेजी शासन द्वारा शोषण होता रहा। वर्तमान समय तक अधिकांश मुण्डा जनजातियाँ अपने मूल अधिकारों और सम्मानित जीवन के लिये संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें विकास की मुख्य धारा और प्रतिष्ठित जीवन के लिये आवश्यक मूलभूत सुविधाओं से बाहर रखा गया है। अपने अधिकारों की रक्षा और इसकी मांग को लेकर खूँटी जिले के मुण्डा कई ओदोलनों और विद्रोहों का नेतृत्व किये। यहाँ की इस प्रमुख जनजाति का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है।
ब्युला भेंगरा
विद्वानों के अनुसार मुण्डा जनजाति लगभग 600 ई. पू. में छोटानागपुर में प्रवेश करने वाली प्रथम जनजाति थी। वर्तमान में इनका बसावट मुख्यतः भारत के बिहार, बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम और अंडमान निकोबार में है और झारखण्ड में मुख्य रूप से राँची, खूँटी, सिमडेगा, पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूम एवं हजारीबाग जिले में है।
मुण्डा जनजाति अपनी स्वतंत्र धार्मिक, प्रषासनिक, सांस्कृतिक रीति - रिवाज व व्यवहारिक जीवन शैली के लिये प्रसिद्ध हैं। कई इतिहासकारों ने इन्हें मो-एन-जो-दाडा (मोहनजोदड़ो), होड़ो रपः (हड़प्पा) नगरों के प्रत्यक्ष निर्माता बताया है वहीं इनके मध्य प्राचीन काल से प्रचलित ’’दिरी रकब’’ परम्परा जो आज भी विद्यमान है इन पत्थरों की प्राचीनता से यह सिद्ध किया जाता है कि पाषाण सभ्यता का आरंभ भारत में मुण्डाओं ने ही किया था। मुण्डा समुदाय मुण्डारी भाषा बोलते हैं जो आस्ट्रिक भाषा परिवार के अंतर्गत आस्ट्रोएशियाटिक वर्ग की एक भाषा है; अतः डब्लू. स्मिट जैसे विख्यात भाषाविद् भाषा के आधार पर मुण्डाओं का मूल स्थान दक्षिण चीन में होने की संम्भावना जताते हैं। इसी आधार पर आदि काल में मुण्डाओं की जो भारत आगमन की कल्पना की गई है उसे दक्षिण पूर्व मार्ग का सिद्धांत कहा गया है। बी. विरोत्तम और शत्रुघ्न कु. पांण्डेय जैसे इतिहासकार कहते हैं मुण्डा अपने मूल स्थान से निकलकर हिमालय पर्वत की ओर से होते हुए पश्चिमोत्तर भारत में दाखिल हुए और सभ्यता का निर्माण किया। इस क्रम में उनकी कई टोलियाँ आईं और वे अरावली विंध्य की पर्वतीय प्रदेशों में बस गई वहाँ रह रहे स्थानीय जनों से उनका मुकाबला हुआ और वे दक्षिण के बजाए पूर्वी क्षेत्र की ओर बढ़ गए और रोहतासगढ़ को अपना आश्रय स्थल बनाया वहाँ चेरो खरवारों से युद्ध के बाद छोटानागपुर की ओर बढ़ गए। मुण्डारी लोकगीतों में मुण्डाओं द्वारा रोहतासगढ़ छोड़ने के कई किस्से मिलते हैं। सरत चंद्र राय ने भी इस घटना का जिक्र अपनी किताब ’’मुण्डाज एण्ड देयर कंट्री’’ में किया है। मुण्डा प्रमुख रिसा मुण्डा ने छोटानागपुर के ओमेदंडा गाँव को अपना पहला पड़ाव बनाया।
राँची के पश्चिमोत्तर भाग में जब मुण्डा जनजीवन व्यवस्थित हो ही रहा था कि लगभग उन्हीं भागों से उराँव जनजाति भी रोहतासगढ़ में प्रवेश किये जहाँ उनका सामना मुण्डाओं से हुआ। राँची जिला गजेटियर में मुण्डा एवं उराँवों के बीच समझौते के तहत उराँवों के लिये अपना क्षेत्र छोड़कर राँची और राँची के दक्षिणी भागों में चले जाने का जिक्र किया गया है। एक अन्य मुण्डा परम्परा से सम्बन्धित तथ्य यह है कि मुण्डाओं ने अपने ईष्वर सिंगबोंगा को क्रोधित कर दिया फिर उन्होंने मुण्डा जाति का विनाष अग्निवर्षा द्वारा किया। मिसीसिंगबोंगा ने मनुष्य जाति पर दया दिखाते हुए ’लुटकुम हड़म’ (एक पुरूष), ’लुटकुम बुड़ि’ (एक स्त्री) को सिंगबोंगा के क्रोध से छिपा लिया। कालांतर में इन दोनों की कई संताने हुई। इन दोनों को ही मुण्डा जनजाति अपना आदि पूर्वज मानते हैं जो आजमगढ़ क्षेत्र में रहते थे। मुण्डाओं ने राँची के पिठौरिया के निकट सुतियांम्बे को अपना प्रशासनिक केंद्र बनाया और सुतिया पाहन को मुण्डा प्रधान के रूप में नियुक्त किया। उसने अपने नाम पर मुण्डा क्षेत्र का नाम सुतिया नागखण्ड रखा। यहाँ प्रवेष करने के बाद मुण्डा खूँटों (मूल पुरूष) ने जंगलों को काट कर गाँव बसाए और खेति लायक भूमि का निर्माण किया। बिरसा आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1908 के सी. एन. टी. एक्ट के अध्याय 02 की धारा 08 में इन्ही खूँटों को परिभाषित किया गया है। 1908 और 1932 ई. के सर्वे में पूरे झारखण्ड के क्षेत्रों में खूँटी में ही सबसे अधिक खूँटकट्टीदारों के वंसज पाए गए। अतः बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह कहता है कि खूँटी क्षेत्र का नाम इन्हीं खूँटों (खूँटकट्टीदारों) की अधिकता के कारण खूँटी पड़ा ।
डाॅ. कामिल बुल्के शोध संस्थान मुण्डारी विभाग के अध्यक्ष डाॅ. खातिर हेम्ब्रोम से लिये गए एक इंटरव्यू में उन्होंने खूँटी का नाम खूँटी कैसे पड़ा इससे जुड़ी एक घठना का वर्णन किया जो ब्रिटिश काल से सम्बन्धित है। उन्होंने कहा कि वैसे तो कई परम्पराएँ हैं किन्तु ’’इंदि जतरा’’ को भी इसका कारण बताया जाता है। ब्रिटिश काल में खूँटी की जनता जमींदारों के शोेषण और बेठ - बेगारी से परेशान थी। उन्हें उनके काम के बदले 1 रूपया दिया जाता था। जिसमें से 75 पैसे जमींदारों को वापस दे देना पड़ता था। 25 पै. गुजारे के लिये बहुत ही कम था। इस प्रकार की शोेषणों से तंग आकर उनके विरोध में पृष्ठभूमि तैयार करने के लिये खूँटी के पश्चिम में कर्रा रोड के निकट धार्मिक मेले के बहाने इंदि जतरा के रूप में मुण्डा जन इकठ्ठे होने लगे। इस मेले में पाहन तथा भोक्ताओं द्वारा इंदि नामक पेड़ के खूँट को मैदान के मध्य भाग में गाड़ा जाता फिर चारों ओर अन्य खूँट भी गाड़े जाते थे। इनमें भोक्ता झूलन झूलते तथा पाहनों द्वारा अन्य धार्मिक क्रियाएँ पूरी की जाती थी। मेले में आस पास के गाँव के सभी मुण्डा बड़ी संख्या में इकठ्ठा होते थे जिससे जमींदारों को किसी बड़े विद्रोह का आभास होने लगा। अतः जमींदार इनकी गतिविधियों को देखने आते और जब मेला समाप्त हो जाता था तो अपनी अपनी सवारियों को इन खूँटों में बाँध देते फिर वहाँ के लोगों से जतरा की वास्तविक उद्देष्य को जानने की कोषिस करते थे। अतः इन्ही इंदि खूँटी के कारण इस क्षेत्र का नाम खूँटी पड़ा। आज तक इस क्षेत्र में इंदि झूलन जतरा का आयोजन किया जाता है।
खूँटी अपने हक और अधिकारों, जल, जंगल, जमीन, दिकू पूँजीवादी सोच, सभ्यता संस्कृति एवं धर्म की रक्षा करने वाले वीर सपूतों की भूमि रही है। मुगल काल तक इस क्षेत्र में शांति थी किन्तु उनकी यह आजादी 1767 ई. में सिंहभूम क्षेत्र में अंग्रेजों के प्रवेश के साथ ही खत्म हो गई। ब्रिटिश शोषणपूर्ण नीति का परिणाम 1831 - 32 ई. के कोल विद्रोह, 1858 - 95 ई. के सरदारी लड़ाई और 1890 - 1900 ई. के बिरसा आंदोलन के रूप में हुआ। कोल सरदारों द्वारा जमीनी हक और आजादी के लिये सरदारी लड़ाई के रूप में एक लम्बी लड़ाई लड़ी गई जिसमें मुण्डा और उरांवों ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया। यही सरदारी लड़ाई खूँटी क्षेत्र में बिरसा मुण्डा के नतृत्व में बिरसा आंदोलन के रूप में परिणत हुआ। यहाँ के मुण्डाओं ने इन आंदोलनों में बड़ी संख्या में शामिल होकर लड़ाई लड़े । एक उदाहरण के रूप में 9 जनवरी 1900 ई. को खूँटी के हसादअः क्षेत्र में बिरसा आंदोलन के दौरान लगभग 200 पुरूष, स्त्रियाँ और बच्चे मारे गए। कई स्त्रियाँ अपने पीठ पर बच्चे बांधे अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो र्गइं। जनजातियों द्वारा किये गए इन आंदोलनों के कारण तत्कालीन सरकार को कई बार झुकना पड़ा और 1833 ई. के बंगाल अधिनियम, छोटानागपुर फ्रंटियर एजेंसी एवं 1908 ई के छोटानागपुर काष्तकारी जैसे अधिनियम इन जनजातियों के हक में पारित करना पड़ा जिसमें यहाँ के मूल निवासियों के परंपरागत अधिकारों को स्वीकार किया गया, पुश्तैनी भूमि के अधिकार को मान्यता दी गई।

PC: Joshua Olsen
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