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​कीर्ति मिंज 

पश्चिमीकरण की बयार में भावी पीढ़ी 

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बहुधा सांस्कृतिक पतन या भटकाव की बातें करते समय पाश्चात्य संस्कृति के अंधानूकरण की बातें कही जाती है। यदि बात पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति, व्यापक भौतिक व्यवहारिक जगत की हो तो पश्चिम के बिना कुछ भी नहीं। तात्पर्य जितने भी जीवन उपयोगी संसाधनों की हमारे जीवन में उपयोगिता है, जिनसे हम सुख समृद्धि प्राप्त करते हैं, सारा कुछ तो पश्चिमी देशों की देन है। उपयोगी साधनों की अपेक्षा हम रुढ़ परंपरा के नाम पर कर नहीं सकते। समय का अंदाजा लगाने की परंपरा घड़ी ने समाप्त कर दी, उसे वापस नहीं ला सकते। लैंडलाइन, टेलीफ़ोन की जगह कीपैड मोबाइल के बाद आए टचस्क्रीन को हम त्याग नहीं सकते। साइकिल, बस, ट्रेन, हवाई जहाज से यात्रा करने की उपलब्धि को ठुकरा नहीं सकते। करघे से बनी मोटी खादी के वस्त्र अपना नहीं सकते। वनस्पति के कारंज तेल के दीए को अपना नहीं सकते, क्योंकि विज्ञान ने नित नए-नए अविष्कारों से हमारे लिए

तमाम सुविधाएँ जुटा दी हैं।

इन आविष्कारों के आविष्कारक पाश्चात्य देशों के ही रहे हैं। रेल, हवाई जहाज, मोटरयान, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, मोबाइल, विद्द्युत, गैस, इत्र, कलम, पेपर, प्रिंटिंग प्रेस, कम्प्यूटर, हीटर, कूलर, एटम बम, हाइड्रोजन बम, बंदूक, स्टेनगन, मशीनगन, टॉमीगन, तमाम रोगों की दवाएँ, चिकित्सा के आधुनिकतम यंत्र, एक्स-रे, सूक्ष्मदर्शी यंत्र, थर्मामीटर, स्टेथोस्कोप, सुई और बहुत कुछ पाश्चात्य देशों की ही तो  देन है।

जब इन सुखी साधनों को हमने अपने जीवन का अंग बना लिया है तो स्वाभाविक रूप से उनकी सभ्यता संस्कृति को भी अंगीकार कर बैठे। मेज पर खाना खाना, शराब पीते वक्त ग्लास सटाना या टकराना, पोशाक, पहनावा, टाइ, सूट, कमीज-पैंट, पक्का मकान, अस्वेस्टस और अन्य। इन्हें अपनाकर आधुनिकता की पंक्ति में आना, विकासशील राष्ट्रों के पद चिन्हों पर चलना तर्कसंगत है। आपके पास बाइक है तो घोड़े पर क्यों चढ़ने लगे? हेलीकॉप्टर उपलब्ध है तो रेलगाड़ी क्यों चलाने लगे? पाश्चात्य देशों के चमत्कारिक आविष्कारों से सुख सुविधाएँ बढ़ी पर उसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे, एटम बम और अस्त्रों का दुरुपयोग। ऐसा नकारात्मक प्रभाव सभी आविष्कारों के साथ फैला भी एवं इससे प्रभावित हुए बिना न रह सके। हमारी पुरातन संस्कृति भी पाश्चात्य संस्कृति की जद में आ गई। वर्षों अंग्रेजी शासन की बदौलत यहाँ विद्द्युत, रेल, हवाई जहाज, पानी जहाज की सेवाओं की स्थापना तो हुई ही, साथ ही साथ खान-पान, रहन-सहन, मनोरंजन के साधन व संस्कृति भी प्रभावित हुई। हमारे पारंपरिक परिधान आदि पर भी इसका असर पड़ा। ड्रम सेट, पियानो, गिटार, बेस पैड आदि ने यहाँ के पारंपरिक वाद्य यंत्र को पीछे धकेलने की कोशिश की।

आज भी हमारे शहरी युवक-युवतियां पाश्चात्य वाद्य यंत्रों की लत में तल्लीन हैं। उन्हें मांदर, ढोल, नगाड़े पसंद नहीं। और तो और आधुनिक युवक-युवतियां बिना वाद्य यंत्रों के ही डीजे संस्कृति के आदी हो गए हैं, जिसमें केवल कर्कश आवाज से निकलने वाले गीत संगीत के माध्यम से नृत्य होता है। इसे बुज़ुर्ग गूंगा डांस कहते हैं। गाने बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, कोई बजा रहा है तो कोई गा रहा है। आपको केवल कदम से कदम मिलाकर थिरकना और कमर लचकाना है। हाथ-पाँव, कमर, कंठ, वक्ष, गर्दन ही इससे क्रियाशील रहते हैं जबकि जिह्वा बंद रहते हैं एवं आँखें तटस्थ रहती हैं।

सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि पाश्चात्य परंपरा फिल्मों से अभिभूत है। पहले फिल्मों में पाश्चात्य संगीत और वाद्य का समावेश होता है। पीकर झूमने, एकल गायक या गायिका के स्वर पर समूह का फ़्लोर पर थिरकना, बैले डांस या टिवस्ट कहलाता है। इससे प्रभावित नृत्य संस्कृति शहरों से होकर गाँव में जा पहुँची है। जिसमें परम्परागत संस्कृति विनष्ट हो रही है। ऐतिहासिक और पुरखों के जीवन से जुड़ी भावात्मक गीत विलुप्त होते जा रहे हैं। पश्चिमीकरण की बयार भावी पीढ़ी को जकड़ रही है। परम्परागत अखरा, अखड़ा की जगह लोग मनमाफिक स्थल पर जगह घेर कर भड़काऊ चमकीली लड़ियों में बल्ब आदि से सुसज्जित मंच बनाकर उत्सव का आनंद उठाते हैं। वाद्य यत्रों  के नाम पर होता है भाड़े के ध्वनि विस्तारक साउंड बॉक्स और वाद्य यंत्र। इन सबसे संस्कृति का अवमूल्यन होता दिखलाई पड़ रहा है। त्योहारों से सम्बंधित गीतों की जगह अटपटी फजूल गीत बजाए जा रहे हैं। वर्तमान पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है।

 

पारम्परिक वाद्य यंत्रों की दुर्लभता उनके रखरखाव और मरम्मत सम्बंधी जटिलता के कारण भी नई पीढ़ी का मोहभंग इनसे हुआ है। जबकि शहरों में पाश्चात्य वाद्य यंत्र सुलभ हैं। द्रुत  गानों, धुनों के मुकाबले परंपरागत गीतों का अनुकरण जटिल व बोझिल प्रतीत होता है। इस तरह उनके लिए प्रशिक्षण प्रेरक अवसरों की भी कमी है। फलस्वरूप पश्चिमीकरण की आधुनिक प्रणाली उरांव संस्कृति पर भारी पड़ रही है।

कभी पश्चिमीकरण के लिए ईसाई धर्म में परिवर्तित आदिवासियों पर दोषारोपण किया जाता रहा है। यह सच है कि उन्होंने कुछ नकारात्मक आचरणों पर ध्यान केंद्रित कर उनके उन्मूलन के लिए अभियान छेड़ा, जिस पर कोई भी उंगली उठा नहीं सकता। भूत-प्रेत का हौवा, अंधविश्वास के मैल से पड़े परतों को हटाने की कोशिश की, पर यह कठिन मालूम होता है। फिर भी यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि पश्चिमी जगत के ईसाई धर्म गुरुओं ने कुड़ुख गीतों को यहां के भूमि पुत्रों द्वारा संकलित करा कर सुरक्षित रख दिया। बिना तोड़े मरोड़े हुबहू हमारे लिए परोस कर रख दिया। ‘लील ख़ोरआ खेखेल‘ पुस्तक के मुकाबले ऐसा कोई ग्रंथ किसी ने नहीं छापा। इसके गेटअप, इसके कागज, उसकी छपाई और जिल्द का मुकाबला नहीं है।

इस तरह उरांव संस्कृति के बिखराव को बाँधने, समृद्ध करने की नवपरम्परा का प्रारंभ 19वीं सदी से अंग्रेज़ों ने प्रारंभ किया। हाँ, एक बात माननी होगी कि विभिन्न तरह के संस्कारों से दुराव बढ़ा, आदि परंपरा की कुछ धारणाएं अवरुध्द हुई। इस तरह पश्चिमीकरण का प्रभाव व्यापकता से बढ़ा। अब तो यह सभी उरांव जनों के जीवन के रहन-सहन, खान-पान, नृत्य गान, पहनावा इत्यादि पर घुसना चाहता है। जो स्वाभाविक रूप से विकसित जीवन शैली के साथ अतिशय सरोकार के साथ संबंध रखता है अर्थात मोबाईल के युग में कौन शामिल नहीं होना चाहेगा। आज बैलगाड़ी में कौन सफर करना चाहेगा? तेज भागती इस दुनिया में हर कोई अपनी क्षमता के मुताबिक आगे बढ़ना चाहता है। इन सब के पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ विज्ञान के आविष्कार हैं जो सारी सुख सुविधाओं के साधन जुटाता है। प्रकृति पर विजय पाकर मानव सामाजिक उत्कर्ष को पाना चाहता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, “मैं संस्कारों में विश्वास नहीं करता मैं तो स्वाभाविक उन्नति का विश्वासी हूँ।”

प्रचलित विचारधाराओं के दमन परम्पराओं की अनदेखी रूढ़ीवादिता के त्याग और सांस्कृतिक बदलाव के बिना मुख्यधारा में जीना मुश्किल है। भले ही इसके लिए आलोचनाएं झेलनी पड़े। जवाहरलाल नेहरू कहते हैं अब विज्ञान और विवेक के संबंध से ही मानव जाति का विकास संभव है। धर्म और संप्रदाय के नाम पर जो लोग जनता की भावनाएं भरते हैं वह आने वाले उज्जवल भविष्य को नहीं जानते हैं। मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि ”किसी भी देश की समृद्धि उसकी भव्य इमारत पर निर्भर नहीं करती। यह तो उस देश की शिक्षा, संस्कृति, चरित्र व मानसिक खुलेपन के पैमाने पर मापी जा सकती है।“ सच कहा जाए तो सांस्कृतिक अवमूल्यन के लिए पश्चिमीकरण को दोष देना गैर अनुचित सत्ता है जो कि उस में भाग लेने वाले सब लोगों को सिर्फ़ मिलाती ही नहीं उनमें यह बोध भी जगाती है कि हम एक हैं।

(यह लेख कीर्ति मिंज द्वारा पूर्व में 'उराँव झरोखा' पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है )

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