



प्रवीण एक्का
संपादकीय कलम से
जोहार साथियों!
संपादकीय मंडली द्वारा "जनसंघर्ष" के इस अंक में आपका हार्दिक अभिनंदन करते हैं। कोरोनाकाल की अपरिहार्य घटना अप्रत्यक्ष रूप से अप्रैल माह के अंक को प्रकाशित होने में बाधक सिद्ध हुई, इसके लिये हम खेद व्यक्त करते हैं।
मासिक पत्रिका "जनसंघर्ष" के प्रथम अंक(मार्च 2021) में लेख एवं कार्ययोजना की जानकारी द्वारा आदिवासी समाज में जनजागृति की मुहिम शुरू की गई है। हमें उम्मीद है कि आप पत्रिका के मासिक अंक के माध्यम से नई जानकारियां प्राप्त कर अवश्य लाभान्वित हुवे होंगे और होते रहेंगे।
आदिवासी समाज की संघर्ष की गाथा कालांतर से चली आ रही है। शायद इसी वजह से हम संघर्षरत जीवन के आदि हो चुके हैं। संघर्षरत रहते हुये भी आदिवासी समाज अपने वजूद को विषम परिस्थितियों में भी संभालकर रखा है, और यह जिम्मेदारी पीढ़ी दर पीढ़ी होते हुये हमलोगों को मिली है, जिसे निभाना और अग्रसारित करना हमारा दायित्व है ।
यूँ तो संघर्ष के अनेकों रूप होते हैं, उनमें से सभी व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर को छूते हुये राष्ट्रीय एवम अंतरराष्ट्रीय रूप में संघर्षशील हैं। परन्तु, एकसमान कठिन परिस्थितियों में संघर्ष का केंद्रक एकक हो जाता है, और हम एकजुट होकर उस कठिन चुनौती के पार होने का संघर्ष करते हैं ।
कोरोना (Covid-19) नामक महामारी को हराने के लिये आज पूरा विश्व संघर्षरत है । एक-एक जन की अनुशासित भागीदारी, हिम्मत और मज़बूत मनोबल से हालातों में काबू पाया जा रहा है। दिशापूर्ण संघर्ष अनेकों सीख को प्रदान करता है, जोकि सबक के साथ-साथ सकारात्मक कल के निर्माण में सहायक सिद्ध होते हैं। इस कोरोनाकाल में हम सभी अपने-अपने जीवन की अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहे हैं। विभिन्न तरीकों से स्वस्थ रहने के उपाय तलाश रहे हैं, किंतु प्रकृति से जुड़ाव में हमें अधिकतम समाधान दिखाई पड़ते हैं।
कोरोनाकाल फिर से हमें प्रकृति से जुड़ने का संदेश दे रहा है। शुद्ध आक्सीजन, ऑर्गेनिक ताजी सब्जियां और प्राकृतिक गोद में बसे हमारे गाँव हमें कृत्रिम दुनिया की चकाचौंध के ख़यालों को छोड़कर वापस अपने मूल की ओर लौटने का न्यौता दे रहे हैं। वर्तमान परिस्थिति में लोकगायक श्री मधु मंसूरी जी के द्वारा गाया गीत "गांव छोड़ब नाही, जंगल छोड़ब नाही, माई माटी छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नाहीं....." भी पुनः हमें अपने मूल ढांचागत जीवन शैली और खानपान को याद कर अपनाने का संदेश देता है।
आदिवासी समाज के पास स्वस्थ रहने के लिये प्राकृतिक संसाधन के साथ-साथ सामाजिक तौर पर मजबूत रहने के लिये संवैधानिक ताक़तें हैं। जरूरत है तो बस जागरूक नागरिक बनने की। तो क्या आप जागरुक नागरिक बनना पसंद करेंगे!
बेशक ! अस्तित्व के सुरक्षा हेतु जागरूक बनकर जद्दोजहद ही "जनसंघर्ष" है।
जोहार!!
