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अंजु टोप्पो 

संताल हूल: इतिहास के पन्नों से 

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उन्नीसवीं सदी में एक ऐसी घटना घटी जिसकी गूंज सिर्फ संताल परगना मे ही नहीं वरन् संपूर्ण भारतवर्ष में यहां तक कि लंदन मे भी सुनाई पड़ी। 1855-56 मे हुई इस घटना को संताल विद्रोह या संताल हूल के नाम से जाना जाता है। सिपाही विद्रोह के महज दो वर्ष पूर्व घटित हूल ने 1857 के लिए पृषठभूमि भी तैयार की थी। यह विद्रोह जमींदारों, बंगाली महाजनों, व्यापारियों, अग्रेजी साहबों, दरोगा और ब्रिटिश एजेंट्स के द्वारा किए जा रहे शोषण का परिणाम थी।

 

क्रांति की शुरुआत दामिन-इ-कोह क्षेत्र से हुई थी जिसमे राजमहल, पाकुड़, गोड्डा, दुमका, देवघर ज़िले शामिल थे। ये क्षेत्र स्थाई बंदोबस्त के अंतर्गत आते थे जिस कारण संतालों को हमेशा ही भू राजस्व देना पड़ता था।[i] फसल खराब होने पर भी उनके द्वारा दी जा रही कर को न तो समाप्त किया जाता था और ना ही कम किया जाता था। अतः उन्हें कर चुकाने के लिए, बीज खरीदने के लिए और अपनी व्यक्तिगत जरूरतों के लिए ऋण की आवश्यकता होती थी। वे बंगाली महाजनों से ऋण लेने के लिए बाध्य हो जाते थे जिनका रवैया काफी शोषणात्मक था। ऋण प्राप्त करने के लिए ये अपनी भूमि को महाजनों के पास गिरवी रखते थे। उक्त ऋण पर 50% से 500% व्याज निर्धारित किया गया था। एक रुपये पर पांच रुपये ब्याज देना पड़ता था। वापस नहीं देने की स्थिति पर इनकी भूमि, पशु सभी महाजनों द्वारा जब्त कर ली जाती थी। यहाँ तक कि महाजन बेनामी स्वामित्व के अंतर्गत संतालों की भूमि को हथिया लेते थे। उनके अनाज को भी अनुचित दरों पर खरीदते थे, मना करने पर इनके कान खींचे जाते थे,  इनको पीटा जाता था और किराए को भी बढ़ा दिया जाता था। बहुत बार ऋण नहीं चुका पाने की स्थिति में उन्हें महाजनों और जमींदारों के खेतों में बिना पारिश्रमिक के ही बंधुआ मजदूर की भाँति काम करना पड़ता था।

 

एक बार एक व्यक्ति को 35 रुपए का कर्ज चुकाने में वर्षों लग गए, उसने, उसके पुत्र ने यहां तक कि उसके पोते ने भी कर्ज उतारने के लिए मुफ्त सेवाएं दी अर्थात् दास की भांति काम किया। रेलवे के निर्माण ने भी उनकी समस्याएं बढ़ा दी थी- संतालों की कृषि योग्य भूमि को ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा रेलवे पटरी बिछाने हेतु ले लिया जा रहा था, जिसके एवज में उन्हें किसी प्रकार का मुआवजा प्राप्त नहीं हुआ था। साथ ही रेलवे अभियंता और बाहर से आए कर्मी संताल महिलाओं के साथ दुरव्याहर करते थे। एक दफा एक रेलवे साहिब ने दो संताल औरतों  जबरन उठा लिया था, एक संताल पुरुष को घायल कर दिया और एक को मार डाला था।[ii] 

 

शोषण से तंग आकर संतलो ने अंग्रेज अफसरों से भी सहायता मांगी, लेकिन उनकी समस्या का समाधान नहीं हुआ। उन्होंने न्यायिक प्रणाली के विषय में भी सोचा  परन्तु न्यायालय देवघर और भागलपुर में स्थित थे जिनकी दूरी दामिन ई कोह क्षेत्र से काफी ज्यादा थी अर्थात् यात्रा और मुकदमों का खर्च वहन कर पाना उनके लिए नामुमकिन था। अंततः असहनीय शोषण से निजात पाने के लिए भोगनाडीह के चार भाइयों ने विद्रोह का आग़ाज़ किया। सिधो, कान्हु, चांद और भैरव मुर्मू ने धर्म को दिकुओ के विरुद्ध औजार बनाया। उन्होंने यह दावा किया कि ठाकुर ने स्वयं उन्हें दर्शन देकर संताल परगना को स्वतंत्र करने के लिए कहा है। उनके आह्वान पर करीब 10,000 संताल, 30 जून 1855 को भोगनाडीह में एकत्रित हुए और इस जगह से ही विद्रोह की शुरुआत हुई। सिद्धो के द्वारा यह ऐलान किया गया कि अब नए दरों पर किराये दिए जायेंगे, जैसे - दो आना प्रत्येक भैंस जोत के लिए , एक आना बैलगाड़ी जोत के लिए और आधा आना गाय जोत के लिए।[iii] साथ ही यह भी आह्वान किया गया कि जो भी शोषण करेगा उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। संतालों के द्वारा शुरू की गयी इस विद्रोह की लहर चारो ओर फैल गई और धीरे धीरे इसमें करीब 28 जातियां भी शामिल हो गईं, जिनमें प्रमुख है - पहाड़िया धांगर, भुइयां, ग्वाला, जोलाहा, बूयास, बावरी, जोलाहा, तेली, कुमार, हरिस, बोंगास, नाई, लोहार आदि शामिल थे।[iv]

 

इस विद्रोह को सफल बनाने में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है। फूलो, झानो का नाम सर्वप्रथम आता है, इन दोनों बहनों ने अंग्रेज़ी पुलिस छावनी में घुसकर कई लोगों को मौत के घाट उतारा था। इनके अतिरिक्त राधा, हीरा, दुर्गा, सानू, दूकी का नाम भी उल्लेखनीय है।[v] महिलाओं ने जेल जाने पर भी किसी भी प्रकार का संकोच नहीं किया। नवंबर 1855 में संताल परगना में मार्शल कानून लगाया गया और कईयों को गिरफ्तार कर बर्मा भी भेज दिया गया। हालांकि ये विद्रोह काफी कोशिशों के बाद दबा दिया गया परन्तु महिलाओं और पुरुषों के अडिग और निर्भीक कोशिशों की वजह से ही परिणामतः 22 दिसंबर 1855 को एक्ट XXXVII पारित किया गया, जिसने संतालो को राहत प्रदान की। इस विद्रोह का व्यापक प्रभाव बिहार, बंगाल और ओडीशा पर पड़ा था। यह विद्रोह आदिवासियों की प्रकृति को प्रदर्शित करती है, वे नम्र, दयालु और दोस्ताना व्यवहार रखते हैं लेकिन वे अपनी भूमि पर किसी प्रकार का बह्या हस्तक्षेप नहीं चाहते। इतिहास ऐसे कई सारे विद्रोह का गवाह बना है जिसमे शोषण के खिलाफ आदिवासियों ने अपनी आवाज बुलंद की और अपने अधिकारों को प्राप्त किया है।

 

[i] एल एस एस ओ माले, बंगाल डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटियर्स ,संताल परगना कलकत्ता ,1900

[ii] जुडिशियल प्रोसीडिंग्स, फ़रवरी 1856, न 827A

[iii] जुडिशियल प्रोसीडिंग्स, फ़रवरी 1856, न 827A

[iv] जुडिशियल प्रोसीडिंग्स, 28 अक्टूबर 1855, न 58

[v] जुडिशियल प्रोसीडिंग्स, 12 नवम्बर 1855, न 207

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