


टीएसी (TAC) - जयपाल सिंह मुंडा के विचार

रिचर्ड टोप्पो

Source: newsclick.in (20 March 2020)
Link: https://www.newsclick.in/jaipal-singh-munda-tribal-statesman-hockey-stick-and-vision-gold
जून 2021 में प्रकाशित, झारखंड सरकार की जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) से संबंधित नयी नियमावली, ने कई एक विवाद को जन्म दिया है। जहाँ कई लोग इसे ग़ैर संविधानिक ठहरा रहे हैं, वहीं कुछ इसे सरकार के द्वारा लिया गया एक साहसी क़दम बता रहे हैं। चर्चाएँ जारी हैं, और टीएसी पर कोई भी निष्कर्ष अभी दूर सा प्रतीत होता है।
इतिहास के पन्नों को पलटें, तो पता चलेगा की जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) की कल्पना एवं जन्म ही विवादों के मध्यस्त हुआ था। 21 फ़रवरी 1948, जब भारतीय संविधान का प्रथम ड्राफ़्ट संविधान सभा को सौंपा गया, उक्त ड्राफ़्ट में टीएसी का स्वरूप, संविधान में वर्णित वर्तमान स्वरूप से बहुत भिन्न था। प्रथम ड्राफ़्ट में टीएसी का ज़िक्र एक शक्तिशाली परिषद के तौर पे था, जिसके निर्देशों को मानने के लिए राज्यपाल एवं विधान मंडल बाध्य होता। पर 5 सितम्बर 1949, जब पाँचवी अनुसूची की चर्चा संविधान सभा के समक्ष हुई, तो टीएसी का सारा प्रारूप ही बदल दिया गया था। टीएसी से वो सारी ताकते छीन ली गयी थीं, जो उसे विधान मंडल या राज्यपाल के बराबर लाती थीं। पूरे संविधान सभा में अकेले जयपाल सिंह मुंडा जी ही थे जिन्होंने इसका ठोस विरोध किया था, पर उनकी बातों को नज़र अन्दाज़ करते हुए टीएसी के इस नए एवं कमज़ोर वर्णन को पारित कर दिया गया था (जिसे आज हम संविधान में पाते हैं)।
पर ऐसा क्या बदलाव लाया गया जिससे टीएसी इतना कमज़ोर हो गया? इसका वर्णन स्वयं डा० अम्बेडकर करते हैं, जिन्होंने संविधान सभा के समक्ष निम्नलिखित बातें कहीं:
“संसद एवं स्थानीय विधान-मंडल द्वारा निर्मित विधियों को अनुसूचित क्षेत्रों में प्रयोगतत्व करने के बारे में इस पैरा में प्रावधान किया गया है। मूल मसौदे के पैरा 5 में यह कहा गया था कि अगर आदिमजाति-मंत्राणा-परिषद् यह निदेश दे कि संसद या स्थानीय विधान-मंडल द्वारा निर्मित विधियां अनुसूचित क्षेत्रों में भी संशोधित रूप में लागू की जायें तो राज्यपाल को मंत्राणा-परिषद् के ऐसे निदेश को पूरा करना ही होगा। अब सोचा यह गया है कि संसद या स्थानीय विधान-मंडल द्वारा निर्मित विधियों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू किया जाये या नहीं इस प्रश्न को राज्यपाल के हाथ में छोड़ना ही ज्यादा अच्छा होगा और उसको इस संबंध में निर्णय करने की पूरी स्वतन्त्राता रहनी चाहिये। वह स्वविवेक से जैसा ठीक समझे करे। मूल मसौदे में यह बात नहीं थी। मूल मसौदे के अनुसार राज्यपाल को मंत्राणा-परिषद् के निदेश पर चलना लाज़िमी था।”
जयपाल सिंह मुंडा जी ने जब इसका विरोध किया, तो उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा की वे पुराने अनुसूची (जो की 1948 को संविधान सभा को सौंपी गयी थी) के पक्ष में हैं। उन्हीं के शब्दों में इसका ज़िक्र सुनिए:
“मैं देखता हूं कि इस नई पांचवीं अनुसूची में, किसी तरह ऐसा हो गया है - और शायद यह जान बूझ कर नहीं किया गया है - कि यहां आदिमजाति मंत्राणा-परिषद् का उल्लेख ही नहीं आ पाया है। मूल मसौदे में आदिमजाति मंत्राणा-परिषद् को ही प्राधान्य दिया गया था और अनुसूचित जातियों वेफ सुधार वेफ काम की प्रेरणात्मक शक्ति उसी को दी गई थी। पर अब इस नई अनुसूची में तो यह बात नहीं रह गई है और सारा अधिकार दे दिया गया है राज्यपाल या शासक को। मुझे खेद है कि इस स्थिति को मैं स्वीकार करने में असमर्थ हूं। अध्यक्ष महोदय, सभा को सखेद मुझे यह भी कहना पड़ रहा है कि गत कई दिनों से कुछ लोग आपस में गुप्त परामर्श करते रहे हैं और उनकी बैठवेंफ होती रही हैं। पर उस संबंध में मुझसे कभी कोई परामर्श नहीं लिया गया। इस नई अनुसूची वेफ संबंध में यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी दलों से परामर्श लेकर उसको यहां रखा गया है। इस सिलसिले में जो भी बैठकें लोगों की हुई हैं उनमें मुझे कभी नहीं बुलाया गया। उस नई पांचवीं अनुसूची में यह परिवर्तन अचानक बज्रपात की तरह हमारे सामने आया है। इस सूची को लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है। मेरा कहना यह है कि इस प्रस्तावित अनुसूची वेफ सुधार की काफी गुंजाइश अभी है। आदिवासी होने के नाते मुझे इसका हक था और होना चाहिये कि पहले मुझसे इस परिवर्तन के बारे में परामर्श लिया जाता।”
“मेरा उद्देश्य यही है कि आदिमजाति मंत्राणा-परिषद् वस्तुतः एक प्रभावी निकाय हो और वास्तविक शक्ति उसवेफ हाथ में रहे। राज्यपाल या शासक को कार्रवाई करने की शक्ति जरूर प्राप्त रहे उस पर मुझे रंच मात्रा भी आपत्ति नहीं है पर मैं यह अवश्य महसूस करता हूं कि ‘consulted’ शब्द यहां ठीक नहीं होगा। मेरे इस संशोधन के स्वीकृत होने पर उप-पैरा का रूप यहां हो जायेगाः ‘इस पैरा के अधीन कोई विनियम तब तक न बनाया जायेगा जब तक कि विनियम बनाने वाले राज्यपाल या शासक को, उस राज्य वेफ लिये आदिमजाति मंत्राणा-परिषद् होने की अवस्था में ऐसी परिषद् से ऐसा करने की राय न मिल गई हो।"
जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं मेरे इन संशोधनों में मुख्यतः दो सैधान्तिक बातों पर ही जोर दिया गया है। एक तो यह कि इस अनुसूची के उपबन्धों से लाभ पहुंचना चाहिये। अनुसूचित जातियों के सभी लोगों को और दूसरे यह कि आदिमजाति मंत्राणा-परिषद् वस्तुतः एक प्रभावशाली निकाय होना चाहिये न कि केवल दिखावे का।”
जर्मन दार्शनिक हेगल कहते हैं, “एक चीज़ जो इतिहास हमें सिखाता है वह यह की हमने आज तक इतिहास से कुछ नई सीखा”। टीएसी की वर्तमान स्थिति कहीं ना कहीं हमें इतिहास के समक्ष खड़ा कर देती है और सवाल उठाती, ‘क्या हम फिर से अपनी ग़लतियाँ दुहराएँगे?’
Source:
i) 1948 (संविधान का प्रथम ड्राफ़्ट): https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/6/65/Draft_Constitution_of_India%2C_1948.pdf
ii) TAC पर संविधान में बहस (5 सितम्बर 1949): https://eparlib.nic.in/bitstream/123456789/763535/1/cad_05-09-1949_hindi.pdf#search=null%201949