


आदिवासियों को समझना होगा इन 3 नए कृषि कानूनों को

वर्षों से सरकारी नीतियों के कारण ग्रामीण आदिवासी जल जंगल जमीन से बेदखल होते जा रहे है, अब इन नए कृषि कानूनों के कारण आदिवासी एवं किसानों के मुंह पर ताला और बड़ी कंपनियों के हाथों में चाबुक होगा। सरकार पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों को देसी विदेशी कॉरपोरेट्स के हवाले कर रही है। ऐसे में कृषि सुधार के नाम पर पारित किए गए तीनों कानून किसान एवं आदिवासियों को बड़ी-बड़ी कंपनियों का बंधक बना देंगे। कुछ आदिवासी यह सोच रहे है कि “ इन कृषि कानूनों से हमारा क्या लेना देना.... इससे हमारी दिनचर्या या जीविका पर क्या प्रभाव पड़ेगा या फिर इससे हमारा क्या बिगड़ेगा?” तो वैसे लोगों को यह समझना आवश्यक होगा कि इससे आनेवाले दिनों में हमारा दैनिक जीवन भी प्रभावित होगा।
डॉ. संजय बाड़ा
देश के हर राज्य में खेती-बारी की अलग-अलग व्यवस्था है, झारखंड के जोत या भूमि की तुलना पंजाब, हरियाणा जैसे कृषि समृद्ध राज्य से करना कहीं से उचित नहीं होगा। जहाँ तक मेरा मानना है झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी बड़े किसान तो नही है पर मझोले एवं छोटे स्तर पर कृषि कार्य करते है। इन कृषि कानूनों से छोटे और मंझोले आदिवासी किसानों के जीवकोपार्जन पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। इस स्थिति में पूरे देश के लिए एक प्रकृति का कृषि कानून अतार्किक एवं अन्यायपूर्ण है। उदाहरण के लिए सोमवार को राँची से 34 किलोमीटर दूर बेड़ो में साप्ताहिक बाजार लगता है जहाँ दूर दूर से गाँव के आदिवासी किसान अपनी उपज का हिस्सा विक्रय करने के लिए लाते है एक बड़ी मार्केटिंग कंपनी राँची से बेड़ो एक आदिवासी किसान से सब्जी खरीदती है।
बेड़ो में आदिवासी किसान के यहाँ सब्जी का दाम (मूल्य)
मटर- 10 रू प्रति kg*
फूलगोभी- 5 रु प्रति kg*
टमाटर – 7 रु प्रति kg*
पपीता- 10 रु प्रति kg*
राँची में कंपनी द्वारा लगाया गया दाम(मूल्य)
मटर – 80 रु प्रति kg*
फूलगोभी- 50 रु प्रति kg*
टमाटर- 60 रू प्रति kg*
पपीता- 100 रु प्रति kg* *अनुमानित
कंपनी उसे धो मांज कर पोलिस लगा करके अपना लेबल लगाती है और राँची के मॉल एवं दुकानों में बेतहाशा दाम में बेचती है और कई गुना मुनाफा कमाती है। पर बेड़ो के उस आदिवासी किसान का क्या? जिसके हाँथ में उसकी उपज का सही लागत मूल्य भी सही ढंग से नहीं मिल पाता। क्या उस आदिवासी किसान को वाजिब न्यूनतम लागत/समर्थन मूल्य नहीं मिलना चाहिए? ‘अवश्य मिलना चाहिए’ पर कैसे? इस नए कृषि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी ही नहीं रखी गयी है।
किसान संगठनों का आरोप है कि नए क़ानून की वजह से कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा। तो क्या इनके खिलाफ सभी लोगों को एक एकजुट होने की जरूरत है। पहले हमें समझना होगा कि ये 3 कानून कौन कौन से है।
इन 3 नए कृषि कानून के नाम निम्न है-
1 कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020
2 कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020
3 आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020
इन तीनों कानूनों में से तीसरा कानून आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 के विषय में उदाहरण स्वरूप कुछ बातें प्रमुख है-
1 इस क़ानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज़ और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है. इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ़ युद्ध जैसी 'असाधारण परिस्थितियों' को छोड़कर अब जितना चाहे इनका भंडारण किया जा सकता है।
2 इस क़ानून से निजी सेक्टर का कृषि क्षेत्र में डर कम होगा क्योंकि अब तक अत्यधिक क़ानूनी हस्तक्षेप के कारण निजी निवेशक आने से डरते थे अब वे अपनी इच्छा से लगभग सबकुछ कर सकते है।
3 कृषि इन्फ़्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फ़ूड सप्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा।
4 यह किसी सामान के मूल्य की स्थिरता लाने में किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को मदद करेगा।
5 प्रतिस्पर्धी बाज़ार का वातावरण बनेगा और किसी फ़सल के नुक़सान में कमी आएगी
इस के संबंध में जो आशंकाएं हैं एवं इस संदर्भ में जो तर्क दिये जा रहे हैं उसे समझना आवश्यक है
1 'असाधारण परिस्थितियों' में क़ीमतों में कई गुना बढ़ोतरी होगी जिसे बाद में नियंत्रित करना मुश्किल होगा।
2 बड़ी कंपनियों को किसी फ़सल को अधिक भण्डारण करने की क्षमता होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि फिर वे कंपनियां किसानों को दाम तय करने पर मजबूर करेंगी और इससे निश्चित ही किसानों को अपने फसल का मूल्य कम रखने के लिए दबाव डालेगी।
3 ये कानून किसानों की फसल को मंडियों से बाहर समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कृषि-व्यापार कंपनियों को खरीदने की छूट देते हैं, किसी भी विवाद में किसान के कोर्ट में जाने के अधिकार पर प्रतिबंध लगाते हैं, खाद्यान्न की असीमित जमाखोरी को बढ़ावा देते हैं और इन कंपनियों को हर साल 50 से 100% कीमत बढ़ाने का कानूनी अधिकार देते हैं। इन कानूनों में इस बात का भी प्रावधान किया गया है कि कॉर्पोरेट कंपनियां जिस मूल्य को देने का किसान को वादा कर रही हैं, बाजार में भाव गिरने पर वह उस मूल्य को देने या किसान की फसल खरीदने को बाध्य नहीं होगी, जबकि बाजार में भाव चढ़ने पर भी कम कीमत पर किसान इन्हीं कंपनियों को अपनी फसल बेचने के लिए बाध्य है — अर्थात ‘ जोखिम किसान का और मुनाफा कार्पोरेटों का’ इससे भारतीय किसान देशी-विदेशी कॉरपोरेटों के गुलाम बनकर रह जाएंगे एवं इससे किसान की आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं बल्कि कमजोर होगी।
(कृषि क़ानून के विरोध में महुआडांड में प्रदर्शन)
तब किसान क्या मांग रहे है?
किसानों की मुख्य मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य(MSP) को किसानों का कानूनी अधिकार बनाया जाना चाहिए
क्या है MSP ?
M- Minimum (न्यूनतम)
S- Support (समर्थन)
P- Prices (मूल्य)
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में हर सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अन्नदाताओं के मन में उठ रहे सवालों का ठोस जवाब दे और लोगों को आश्वस्त करे और इसके लिए कुछ निर्णायक कदम भी उठाए । जैसे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जो सर्वोपरि मांग है को किसान का कानूनी अधिकार बनाए जाए। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए। न केवल मंडी व्यवस्था को चालू रखा जाए, बल्कि ग्रामीण किसान बाजारों का विकास किया जाए। मंडियों को पहले की अपेक्षा अधिक पारदर्शी और कुशल बनाया जाए। संविदा खेती का अनुबंध सरल और स्थानीय भाषा में हो, ताकि साक्षर किसान भी उसे समझ सकें। संविदा पर खेती के विवाद का निपटारा सरल प्रक्रिया और निर्धारित समय सीमा में हो तथा ऐसा न करने पर संबंधित अधिकारी को दंडित करने का प्रावधान हो। ग्रामीण स्तर पर वेयरहाउस और कोल्ड स्टोरेज चेन विकसित हों। पशुपालन के लिए अभियान चलाकर ऋण वितरण हो। किसान से सस्ते दाम पर माल लेकर असीमित भंडारण की छूट का लाभ लेकर मुनाफाखोरी पर नियंत्रण का तंत्र विकसित हो। किसान सबका पेट पालता है, परंतु वह स्वयं कर्ज में डूबा रहता है, इसलिए हम सभी का फर्ज है कि ऐसे उपाय करें जिससे वह भी कर्ज रहित खुशहाल जीवन जी सके।
किसान कम कीमत पर धान, महुआ,सब्जी, कपास एवं अन्य उपज बेचने के लिए हैं मजबूर
किसान कम कीमत पर अपने उपज को बेचने के लिए मजबूर है। कुछ समय पूर्व रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में यह कहा गया था कि कृषि विकास दर और आर्थिक विकास दर में कमी आने का प्रमुख कारण इस क्षेत्र में निवेश की कमी है। किसानों के नाराजगी का प्रमुख कारण यह भी है कि उनकी आय दोगुनी करने का वादा जुमला ही सिद्ध हुई है। एक तो न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण के सी-2 फॉर्मूले यानी कुल लागत को शामिल नहीं किया गया है और जो भी मूल्य निर्धारित किया गया है, उस पर मात्र छह प्रतिशत किसानों की उपज खरीदी गई है। गेहूं और धान के अलावा अन्य उपज की एमएसपी पर खरीद में 25 क्विंटल की अधिकतम सीमा और समय पर भुगतान न होने की स्थिति से किसान पहले ही परेशान हैं। हाल में एमएसपी में बढ़ोतरी के बावजूद मंडियों में किसान कम कीमत पर धान और कपास बेचने को मजबूर हैं। ऐसे में सरकार जब भविष्य में एमएसपी से हाथ खींच लेगी, तब बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े घरानों का कृषि व्यापार पर एकाधिकार हो जाएगा, जिसका दुष्प्रभाव आम उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा।
कृषि नीतियां वर्तमान मंडी व्यवस्था के विपरीत हैं
सरकार द्वारा किसानों की फसल की बिक्री के लिए बुनियादी ढांचे के विकास, पूंजी निवेश, खाद्य प्रसंस्करण से संबंधित उद्योगों के विकास, तकनीक, छोटे किसानों तक ज्ञान को पहुंचाने, छोटे वेयरहाउस का निर्माण जैसे क्षेत्रों पर फोकस नहीं करने से छोटी भू-जोतों पर खेती नुकसानदेह होती जा रही है। गहरे या खारे होते जा रहे भूजल तथा मॉनसूनी क्षेत्र के किसानों की हालत तो और भी बिगड़ी है। मॉनसूनी अर्थात वह क्षेत्र जहां केवल बारिश के पानी से ही फसल हो पाती है। नाबार्ड द्वारा बार-बार वित्त अनुपात में बदलाव से भी राज्यों की सहकारी बैंकों के सामने कृषि ऋण वितरण को लेकर कठिनाइयां उत्पन्न हुई हैं।
क्या बड़ी कंपनियों के आगे किसान बेबस होंगे ?
भारत जैसे देश में जहां 50 प्रतिशत फसल का उत्पादन 86 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान करते हैं, उनके इतने बड़े समूह को बाजारों से जुड़ने में असीमित अड़चनों का सामना करना पड़ सकता है। इतनी कम क्षमता वाले छोटे किसानों का पूंजीपतियों की आर्थिक शक्ति के आगे टिकना संभव नहीं है। खेती में बड़ी समस्या यह है कि इसमें आय का प्रवाह सतत नहीं होता, जबकि किसानों के खर्चे निरंतर होते रहते हैं और उनका कर्ज बढ़ता रहता है।
तीनों कृषि कानून पर जो सवाल उठ रहे हैं क्या उसके जवाब नहीं मिलने चाहिए?
किसानों की समृद्धि के लिए आवश्यक है किसानों के हित में कुछ किया जाए, पर जो तीन कृषि कानून बनाए गए हैं, उन्हें लेकर जो प्रश्न उठ रहे है वे प्रश्न निराधार नहीं हैं, क्योंकि उनके निर्माण में प्रमुख हितधारक किसानों, व्यापारियों, आढ़तियों, मंडी मजदूरों, किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से सम्पूर्ण विचारविमर्श नहीं किया गया और न ही सरकार ने उनकी शंकाओं का समाधान किया। लोकसभा और राज्यसभा में जिस तरीके से बिल पारित हुआ, उससे भी जनमानस को सरकार की नीयत पर शंका होने लगी है। सरकार का यह कर्तव्य है कि किसान एवं कृषि से जुड़े सभी लोगों की आशंकाओं को दूर करे एवं समस्या का उचित समाधान करे।
झारखंड जैसे छोटे जोत क्षेत्र के आदिवासी किसान शायद इन कृषि कानूनों की बारीकियों से कम ही वाकिफ हो पर विशेषज्ञ एवं अर्थशास्त्र के जानकार इन कृषि कानूनों पर यदि कुछ आशंका व्यक्त कर सलाह दे रहे है। तो पढ़े लिखे आदिवासियों का यह कर्तव्य है कि हम लोगों को इस विषय पर अधिक से अधिक जागरूक करें।
