


खड़िया लोककथा में जीवन संसार (भाग २)

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2. ऐतिहासिक लोक कथा
(क) खड़िया नेता का भोलापन: चुनारगढ़ में खड़िया लोग सम्पन्न जीवन बिता रहे थे। उसी समय उनके बीच आर्य जाति के लोग आए और खड़िया नेता से एक जानवर के चमड़े के बदले जमीन मांगा। खड़िया नेता आर्यों की चालाकी समझ न सके औए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। आर्यों ने सूत की तरह चमड़े का पतला धागा के बदले खड़िया नेता से खड़िया निवास स्थान ले लिया। इस जमीन के अंदर आर्यों ने ( भूइंकिला ) भवन बनाया और उसे तरह – तरह के फोटो से सजाया। आर्यों ने इस किले को देखने और प्रीतिभोज करने के लिए खड़िया नेता को निमंत्रण दिया, जिसे उन्होने स्वीकार कर लिया।
रीबा वाणी तिर्की
(ख) खड़िया नेता आर्यों के जाल में: खड़िया नेता के किले में पहुँचने से पहले ही आर्यों ने अपनी सेना किले के चारों ओर तैनात कर दी। उन्होने खड़िया नेता का भव्य स्वागत किया। साथ ही पुआ, पकवान, शराब और प्रशंसा के साथ आदर – सत्कार किया। जब खड़िया नेता इस आदर – सत्कार से तृप्त हो गए तब अचानक आर्यों ने उन्हे कहा – “अब तू कहाँ जाएगा। किले के चारों ओर मेरी फौज है। अब तू जमीन देगा या नहीं।" खड़िया नेता ने जमीन देने से साफ इंकार करते हुए कहा – “ प्राण ले लो पर जमीन कभी नहीं दूंगा।" आर्य सैनिकों ने खड़िया नेता के हाथ – पाँव बांध दिये और हाथ में कलम थमा दी पर खड़िया नेता ने हाथ से लिखना स्वीकार नहीं किया और पैर के माड़ठा यानि पैर की बड़ी अंगुली से हस्ताक्षर किया। आर्यों ने खड़िया नेता को जेल में बंद कर दिया और खड़ियागढ़ पर हमला बोल दिया । उन्होने खड़ियागढ़ को कब्जे में लेकर खड़िया लोगों को चुनारगढ़ से बाहर खदेड़ दिया।
(ग) खड़िया जाति में भैंस पालन: चुनारगढ़ से भाग कर खड़िया लोग घाटीपुर आए। मिलमिली घाटी पार कर वे गंगा नदी के तट पर आए। कहा जाता है कि उन्होने केले के पेड़ की नाव बनाकर नदी पार की और गोम्हापुर और वैशाली नगर में रहने लगे। वैशाली नगर में पोनोमोसोर ने उनसे गाय–भैंस का पालन कर जीवन– यापन करने के लिए कहा।
भावार्थ: चुनारगढ़ की लोक कथा खड़िया लोगों की सरलता और भोलेपन को दिखाता है। खड़िया लोग किसी भी गैर खड़िया को बिना किसी भेदभाव के आसानी से स्वीकार कर लेते हैं। इसीलिए कोई भी जाति उनके गाँव में बस जाते हैं। आज भी खड़िया किसी जाती का विरोध नहीं करता, इसीलिए खड़ियागढ़ की स्थापना नहीं हो पाई है। जिन – जिन स्थानों में खड़िया निवास करते गए, उनका नाम उन्होने खड़िया भाषा में दिया है। हालांकि अनेक नाम मनगढ़ंत भी हो सकते हैं। हर जाति की तरह खड़िया जाति के लोग भी प्राचीन काल से ही गाय – भैंस पालते आ रहे हैं, जो अभी भी उनके जीवन का सहारा है।

Source: https://kharia.org/. Pyara Kerketta Foundation
3. धार्मिक लोक कथा :
(क) पुण्य खड़िया एक पुजारी: पुण्य खड़िया एक 'बड़ोम' पहान पुजारी था। जब भी वह पूजा के लिए जाता था, अपने साथ हमेशा एक नौकर को पूजा की सामग्री ढोने के लिए रखता था। एक दिन रास्ते पर उसे लघुशंका हुई। लघुशंका की क्रिया से पहले उसने अपने जनेऊ को तेंदू के पौधे पर टांग दिया। जब वह वापस आया तो वह उसे लेना भूल गया। नौकर को यह पता था, पर उसने नहीं बताया। कुछ दूर आगे बढ्ने के बाद नौकर लघुशंका के बहाने पीछे लौटा और उस जनेऊ को अपने साथ ले लिया। दोनों पूजा स्थल पर पहुंचे तब पुण्य खड़िया को जनेऊ की याद आई। वह उसकी खोज में पीछे लौटा, लेकिन उसे वह नहीं मिली। फिर जब वह वापस आया तब उसने देखा कि उसका नौकर गृह में जनेऊ पहनकर पूजा – पाठ शुरू कर चुका है। पूजा के दौरान वह बार – बार पुण्य खड़िया का नाम ले रहा था। पुण्य खड़िया ने नौकर से पूछा कि उसने यह जनेऊ कहाँ पाया? तब नौकर ने कहा कि उसे भगवान ने दिया है। यह सुनकर पुण्य खड़िया बहुत दुखी हुआ और कहा कि “ मैंने अपना जनेऊ खो दिया है। भगवान ने इसे तुम्हें दिया है। अब से तुम ही पुजारी बनो, मैं तुम्हारा नौकर बनता हूँ।" उसी दिन से पुण्य खड़िया ने अपनी लापरवाही और बेवकूफी के कारण पूजा का काम छोड़ दिया। लेकिन पुजारी के गुण आज भी खड़िया जाति में मौजूद हैं। कहा जाता है कि वर्तमान में जब भी हिन्दू पंडित मंदिर में पूजा करता है तब वह अवश्य ही पुण्य खड़िया का नाम लेता है।
(ख) खड़िया बड़ोंम की दूसरी लोककथा: एक बार खड़िया बड़ोम ( पुजारी ) घोड़े की सवारी में असफल हुआ। उसने घोड़े के पैरों में खेड़ी काटकर सवारी की। तब एक हिन्दू ब्राह्मण ने उससे कहा कि – “ तुम घोड़े कि सवारी नहीं कर सकते हो। अपना जनेऊ मुझे दे दो। मैं पहन कर दिखाता हूँ कि घोड़े की सवारी कैसे की जाती है।" जनेऊ पहनकर हिन्दू ब्राह्मण ने घोड़े की सवारी की। घोड़ा हवा में उड़ गया और फिर कभी वापस नहीं आया। इस तरह हिन्दू ब्राह्मण ने खड़िया पुजारी का जनेऊ बड़ी चालाकी से लूट लिया। खड़िया पुजारी वर्तमान में खोये हुए जनेऊ की याद में ‘पोइता' पहन कर गाय के रक्षक गोरेया देवता की पूजा करता है और पूजा के अंत में गोशाला के खूँटे पर इस पोइता (जनेऊ) को टांग देता है।
(ग) कार्तिक पुर्णिमा की पूजा: खड़िया पुजारी सोहराई के दिन गोशाला की पूजा करता है। वह जनेऊ पहन कर गोशाला में बैठता है और गाय के रक्षक ‘गोरेया' की पूजा करता है। पूजा समाप्त होने के बाद खड़िया पुजारी जनेऊ उतार कर गोशाला के खूँटे पर टांग देता है। इसके बाद वह हड़िया रस से गाय – बैलों के पैरों को धोता है। फिर धोये हुए हड़िया रस को पी लेता है। इस हड़िया को लड़कियों को नहीं दिया जाता है । इसे केवल खड़िया पुजारी और गृह स्वामी ही पी सकते हैं। अन्य लोगों के लिए दूसरी हाड़ीय तैयार की जाती है।
भावार्थ: खड़िया जाति के लोग प्राचीन काल से ही धार्मिक प्रवृति के पाये गए हैं। आज भी प्रत्येक परिवार का गृह – स्वामी पुजा पाठ करता है। जनेऊ के संबंध में कहा जाता है कि खड़िया पहान और पुजारी अपने गले में अरवा धागा बांधते हैं और पूजा करते हैं। यह पवित्रता का प्रतीक होता है। यदि हिन्दू ब्राह्मण ने खड़िया से जनेऊ लूट लिया तब यह ब्राह्मण कि चतुराई और खड़िया के भोलेपन का प्रतीक है । गोरेया की पूजा सोहराई के दिन की जाती है । गोरेया गोशाला का रक्षक होता है । साथ ही वह धान के खेत का भी रक्षक होता है ।
4. सामाजिक – सांस्कृतिक लोक कथा:
(क) खड़िया गोत्र की उत्पति - आदि मानव की संतान: अग्नि वर्षा में मानव जाति का विनाश हुआ। इसके बाद केवल एक बूढ़ा और एक बूढ़ी बच निकले। इस खड़िया बूढ़ा और बूढ़ी के नौ बेटे और नौ बेटियाँ हुईं। जब वे वयस्क हो गए तो खड़िया बूढ़ा और बूढ़ी ने उनकी शादी कराने की सोची, लेकिन समस्या यह थी की भाई – बहनों में शादी कैसे कराई जाये ? इसलिए बूढ़े पिता ने उन्हे उड़ते हुए हिरण का शिकार करने के लिए भेजा और यह भी आदेश दिया कि शिकार के बिना वे घर नहीं लौटेंगे।शिकार के बाद वे उसका बंटवारा करके ही घर लौटेंगे। बड़े भाइयों को चिंता हुई कि किस तरह उड़ते हुए हिरण का शिकार करें। कई दिन बीत गए पर एक भी शिकार हाथ नहीं लगा।
(ख) हिरण का शिकार और गोत्र की पहचान: नौ भाई शिकार के लिए जंगल में गए लेकिन कई दिन बीतने के बाद भी उनके हाथ शिकार नहीं लगा। एक दिन बड़े भाई ‘कनीसिया' घाट पर बैठे और छोटे भाई जंगल के चारों ओर शिकार की तलाश कर रहे थे। तब बड़े भाई ने हिरण को अपनी ओर आते देखा। जैसे ही बड़े भाई ने हिरण को देखने के लिए अपना सिर ऊंचा किया। उसे देखकर हिरण ने लंबी छलांग लगाई। ठीक उसी वक़्त बड़े भाई ने हिरण पर तीर चलाया और उसके प्राण छेद कर डाले। सब भाइयों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। अब पिता का वचन पूरा हो गया था। उन्होने हिरण को नौ टुकड़ों में विभाजित किया। प्रत्येक भाई ने अपना – अपना हिस्सा उठा लिया। जंगल में जब उन्हे प्यास लगी तो उन्होने मांस का हिस्सा सावधानी से एक जगह छिपा कर रख दिया और सभी भाई अलग – अलग दिशाओं में जल की तलाश में निकले। बड़े भाई को चट्टान पर बहता जल – कुंड मिला। वह जल पीने के लिए नीचे उतरा और उसने जल के बीच एक पत्थर देखा। जल की खोज करते हुए अन्य भाई भी वहाँ आ पहुंचे। सभी बारी – बारी से जल पीने लगे। आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रत्येक भाई ने वहाँ विभिन्न जीवों को देखा। जल पीते समय दूसरे भाई ने कुल्लू ( कछुआ ) देखा, तीसरे भाई ने डुंगडुंग ( मछ्ली ) देखा, चौथे भाई ने बाअ: ( धान ) देखा, पांचवे भाई को नमकीन जल मिला, छठे भाई ने केरकेटा ( पक्षी ) देखा, सातवें भाई ने जल पर टेटेटोहोएज ( पक्षी ) देखा, आठवें भाई ने टोप्पो ( पक्षी ) देखा और नवें भाई ने किड़ो ( बाघ ) को जल पीते हुए देखा। अपनी प्यास बुझाने के बाद वे सभी अपने – अपने मांस का हिस्सा अपने अंगोछे में बांधकर एक साथ घर लौट गए। घर पहुँच कर पुत्रों ने अपना – अपना गमछा खोला और पिता के सामने अपना अपना मांस का हिस्सा रख दिया। गमछा खोलने पर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि प्रत्येक कि पोटली में अलग – अलग प्रकार का मांस मिला। जिस भाई ने जलकुंड में केरकेटा पक्षी देखा था, उसके गमछा में हिरण के मांस के बदले, केरकेटा पक्षी का मांस मिला। इसी तरह अन्य भाइयों के साथ भी हुआ। इसलिए पिता ने उन्ही वस्तुओं के आधार पर नौ भाइयों का गोत्र निश्चित कर दिया।
भावार्थ: खड़िया जाति के लोग यह विश्वास करते हैं कि जलप्रलय और अग्नि वर्षा भारत में ही हुआ। पाप के कारण पोनोमोसोर ने जलप्रलय और अग्नि वर्षा द्वारा पृथ्वी को नष्ट करना चाहा। अग्नि वर्षा के समय जेरका और जेरकी जैसे भाई – बहनो को डकाई रानी और शेम्भू राजा ने भारत की दलदल भूमि में छिपा दिया और उन्हें जीवित रखा। अतः खड़िया जाति का उद्गम और विकास भारत भूमि पर ही हुआ। खड़िया गोत्र की उत्पति से संबन्धित लोक कथा खड़िया गोत्र के विभाजन को भी दर्शाती है। नौ प्रकार के गोत्र खड़िया जाति के वंश या कुल को दिखाते हैं। जैसे – डुंगडुंग एक मछ्ली है, लेकिन खड़िया वंश का प्रतिनिधित्व करता है। नौ प्रकार के जीव या वस्तु खड़ियागढ़ को भी दर्शाता है। गढ़ का अर्थ होता है कुटुंब और कुटुंब शब्द, खड़िया समुदाय या वंश का प्रतीक है।
आदि मानव – संतानों का विवाह: कहा जाता है कि आदि मानव जेरका और जेरकी थे। अग्नि वर्षा के समय जल देवता शेम्भू राजा और डकाई रानी ने उन्हे दलदल भूमि में छिपा कर विनाश से बचा लिया था। आगे चलकर जेरका और जेरकी के नौ बेटे और नौ बेटियाँ हुईं। एक दिन नौ बेटे जंगल में शिकार करने गए। उनके लौटने से पहले ही जेरका ने जेरकी से कहा कि “नौ लोटा तैयार कर के रखो और उसमें पानी भर कर बेटियों को दे दो। “ नौ बेटियाँ लोटा में पानी और थाली लेकर, भाइयों के स्वागत के लिए तैयार हो गईं। जब नौ भाई घर पहुंचे तब नौ बहनों ने अपने भाइयों के पैर धोये लेकिन क्रम से नहीं। पिता की आज्ञा थी कि बड़ी लड़की बड़े भाई का पैर नहीं धो सकती। बड़ी लड़की बड़े भाई को छोड़कर, किसी भी भाई का पैर धो सकती है। इसी प्रकार सबसे छोटी बेटी भी सबसे छोटे भाई को छोड़कर किसी भी भाई का पैर धो सकती है। पिता की इसी आज्ञा के कारण खड़िया समाज में ज्येष्ठ पुत्र की शादी ज्येष्ठ पुत्री के साथ नहीं हो सकती थी। पैर धोने की यह क्रिया मंजूरी और पानी ग्रहण का प्रतीक था। नौ बहनों ने अपने ही भाइयों को अपना सौहर चुन लिया था। इसके बाद सभी भाई जंगल से खूंटा और लठ लेकर आए साल की डालियों से मड़वा तैयार किया गया। एक ही माता – पिता के नौ पुत्र और नौ पुत्रियों की शादी आपस में हो गयी।
भावार्थ: इस लोक कथा के अनुसार आदि मानव जेरका और जेरकी ने अपने पुत्र – पुत्रियों का कुटुंब बना कर आपस में शादी करा दी। आदिकाल में यह नियम विकास के लिए उचित और आवश्यक था लेकिन आधुनिक और विकासशील युग में सगोत्र और भाई – बहन के साथ विवाह को खड़िया समाज गलत मानता है । साथ ही वर्तमान युग में ज्येष्ठ पुत्र की शादी ज्येष्ठ पुत्री के साथ भी हो रही है। इसे भी खड़िया समाज सही नहीं मानता है। इस लोक कथा के अनुसार बहनों ने भाइयों को लोटा – पानी दिया और भाइयों ने भी बहनों से लोटा – पानी ग्रहण किया। इस लोटा – पानी को ग्रहण करने का अर्थ होता है अपनी स्वीकृति देना। उसी दिन से लोटा – पानी का रिवाज आरंभ हुआ । इसीलिए आज भी खड़िया समाज में विवाह से पहले लड़का और लड़की के बीच लोटा में भरे हुए पानी का आदान – प्रदान किया जाता है। जिसे लोटा – पानी की रस्म भी कहा जाता है। इसके द्वारा लड़का और लड़की एक दूसरे के साथ विवाह की स्वीकृति देते हैं।
निष्कर्ष
लोक कथाएँ सत्य होती हैं। लोक कथाएँ, उसमें विश्वास करने वाली जातियों का सत्य होती हैं। खड़िया समुदाय की इन लोक कथाओं से खड़िया समाज की उत्पति, जीवन- शैली, संस्कृति, विस्तार और सामाजिक वस्तुस्थिति को समझने में सहायता मिलती है। लोक कथाएँ खड़िया जनजाति का दर्पण है। जिसकी सहायता से खड़िया समाज के सम्पूर्ण जीवन को प्रकाश में लाया जा सकता है। यह आदिम परम्पराओं और विश्वासों को परंपरागत रूप से मान्यता प्रदान करती है। लोक कथा संसार की प्रत्येक भाषा और संस्कृति में प्रचलित है, जिसका मानव शास्त्र अध्ययन करता है और मानव के सामाजिक – सांस्कृतिक रूप को समझने का प्रयास करता है।
संदर्भ सूची
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